Skip to main content

हिंदुस्तानी तालिबान

delhi_women_bus मैं और आनंद जी इन दिनों दफ्तर से जरा झुटपुटा होते ही निकल लेते हैं। क्या करें आनंद जी की शिफ्ट जल्दी ही ओवर हो जाती है, तो मेरे साथ ही निकल चलते हैं। नुक्कड़ के दो-चार रेहड़ी वाले दुकानदारों से उन्होने दोस्ती कर रखी है।

उस दिन भी हम ऐसे ही एक रेहड़ी वाले के पास जाकर खड़े हो गए। बातचीत का सिलसिला चल निकला। बस में चढ़ने का टाइम हो रहा था, तो बातों का रुख भी बसों की ओर ही मुड़ गया। बस के हर पहलू, डीटीसी के डिसइंवेस्टमेंट, भीड-भड़क्का, ब्लूलाइन वालों की दादागिरी, हर पहलू पर बातें हुईं। वैसे रेहड़ी वाले भाईसाहब बहुत ही विद्वान जान पड़ रहे थे। अचानक से उन्होने हम दोनो का ध्यान बसों में महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार की ओर खींचने का प्रयत्न करा। मुझे उन प्रोग्रेसिव माईंडेड भाईसाहब की सोहबत में बडे़ हर्ष की अनुभूति हो रही थी। हो भी क्यों न, आखिर महिलाओं के प्रति पुरुषों की ऐसी उजली सोच बहुत कम ही देखने को मिल पाती है। लेकिन न मालूम अचानक से भाईसाहब को क्या हुआ, उन्होने ब्राहमणवाद के परम श्लोकों सा वज्रपात करते हुए कहा कि, महिलाओं के साथ जो कुछ भी होता है उसके लिए वे खुद ही तो जिम्मेदार हैं, किसने कहा है कि नौकरी करो, बसों में, सड़कों पर चलो?

मन में और भी सवाल उठ रहे थे, मसलन जॉब को छोड़कर महिलाएं सामाजिक प्रताड़ना से बचने के लिए, क्या कर सकती हैं? भाईसाहब ने बगैर देरी करे, इस पर भी कुछ प्रकाश डाला, ``महिलाओं का कार्य बस घर की चारदीवारी को संभालना भर होना चाहिए!´´ आनंद जी ने भी यह सब सुनकर चुप्पी साध ली, आखिर क्या बोलें बेचारे, ऐसे कलुषित विचारों को सुनकर। वाह रे मेरे हिंदुस्तानी तालिबान, हाय रे तेरे सड़े-गले विचार...

Comments

  1. sahee likha hai aapne...ye bade durbhaagy ki baat hai,haalat badalne me waqt bahut lagega

    ReplyDelete
  2. जी हाँ और हालत तभी बदलेंगे जब लेखक पत्रकार और नौजवान व्यवस्था बदलने का काम अपने हाथों में ले लेंगे, आप के द्वारा निरंतर दिए जा रहे प्रोत्साहन के लिए दिल से शुक्रिया...

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

कैरियर, गर्लफ्रेंड और विद्रोह

वैसे तो यह टाइटल युवा कथाकार अनुज जी के कहानी संग्रह और उसमें पहली कहानी का है, लेकिन इस समय जो किस्सा मैं यहां कहने जा रहा हूं, उसके लिए मुझे यह बिल्कुल सटीक लगा। जिन लोगों ने यह कहानी पढ़ी है वो समझ ही गए होंगे कि मैं राजधानी के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के 'विद्रोही जीÓ की बात करने जा रहा हूं। अनुज जी की कहानी भी पीडीएफ के रूप में इस आलेख के आखिर में दे रहा हूं।     रमाशंकर यादव विद्रोही को जेएनयू में गोपालन जी की लाईब्रेरी कैंटीन में बैठे हुए अक्सर देखा जा सकता है। बहुत से नए आने वाले लोग उन्हे पागल के तौर पर ही पहचानते हैं, तो कुछ वामपंथी मित्रों के लिए वे एक ऐसे शख्स हैं जो दुनिया बदलने की कोशिश में दुनिया से ही बेगाने हो गए। विद्रोही से पिछले महीने तक मेरा कोई परिचय नहीं था, उनके बारे में जानने की उत्सुकता तो बहुत हुई, पर कभी उनसे पूछने का साहस नहीं जुटा पाया। अभी कल रात को ही, बीबीसी की वेबसाइट पर उनकी तस्वीर देख और नाम पढ़कर चौंक सा गया। धक्का सा लगा कि यही वो विद्रोही जी हैं, जिनके बारे में काफी कुछ सुना व पढ़ा है। खबर यह है कि पिछले हफ्ते विश्वविद्यालय ...

कॉलेज का आखिरी दिन

आज बहुत सी यादों को अलविदा कहने का दिन था, मसलन हमारे कॉलेज की लाईब्रेरी को ही ले लीजिए जिसमें न जाने कितने सारे अच्छे पल बिताए हैं, तीन साल तक पल-पल उसके प्यार की सुगबुगाहट को महसूस किया है, कितने सारे एग्जाम्स के नोट्स वहीं पर कलम घिस-घिसकर तैयार किए हैं, कल अपनी इस पुरानी जगह से एक नए रूम में शिफ्ट हो जाएगी। आज आखिरी दिन उसने(लाईब्रेरी ने) बड़ी बेरुखी दिखाई। खैर यह वही कॉलेज है जिसमें प्रो. ओम गुप्ता, महेश सर, शशि नैयर सर, धर सर, अमिय मोहन सर,  और पवन सर जैसे दिग्गजों ने जहां हमारी प्रतिभा को तराशा वहीं पूजा मैम, शिखा मैम, हनी मैम, सुप्रज्ञा मैम, सिल्की मैम व किरण मैम के स्नेह ने हमेशा हमारे लक्ष्य की राह पर हमें अडिग रखा। इसी कॉलेज में अक्षर-अक्षर जोड़ कर हमने टाइप करना और लिखना सीखा, आशुतोष और शुक्ला जैसों के साथ बहुत से गंभीर मुद्दों पर जमकर बहसें भी हुईं। जिंदगी के बहुत से सबक जिनसे शायद भविष्य में दो-चार होना पड़े, वे भी हमें इसी दौरान सीखने को मिले। तो जनाब आज इतनी सारी यादों को अलविदा कहने का दिन था, खैर ऑफिश्यल अनाउंसमेंट(फेरवेल) में अभी समय है, लेकिन मेरे इस दिल पर तो क...

आज कुछ यूं हुआ कि

" यह कविता 'NK' कहलाने वाली उस लडकी के लिये लिखी गई थी जिसकी सुनहरी गहरी आखों में यह कवि अनंत तक डूबे रहने का इच्छुक था... "  आज कुछ यूं हुआ कि बीते समय की परछाईयां यूं ही चली आईं लगा कुछ ऐसा जैसे 'कल’ जिसे हमने साथ जीया था बस पल में सिमट भर रह गया हो। वो जेएनयू का सपाट सा रास्ता तुम्हारी सुगंध से महकता हुआ, नहीं-नहीं, वो तो बासी रजनीगंधा की बेकरार सी एक महक थी! वो कोने वाली कैंटीन की मेज जहां तुम बैठा करती थीं, कुछ झूठे चाय के कप, सांभर की कटोरी वहां अब भी रखे हुए हैं! डीटीसी की बस की कोने की सीट जहां तुम्हारे सुनहरे बाल और आंखे, धूप में चमका करते थे, अब वहां बस मैं अकेला बैठता हूं! वो दिन, जब हम पहली बार मिले थे, वो कूड़े वाला पासपोर्ट, वो बस के बोनट पर बैठ मुस्कुराती सी तुम तुम्हारा साथ, अब सब स्मृति तस्वीर में तुम्हारा साथ न आना दूर दूर चलते जाना वो लंबी बेचैनी , वो तन्हा थे दिन तुम्हारे लिए, मैने उम्मीद को जिंदा बनाए रखा, लगता था मुझे तुम आओगी पास ...