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Showing posts from May, 2010

आज कुछ यूं हुआ कि

" यह कविता 'NK' कहलाने वाली उस लडकी के लिये लिखी गई थी जिसकी सुनहरी गहरी आखों में यह कवि अनंत तक डूबे रहने का इच्छुक था... "  आज कुछ यूं हुआ कि बीते समय की परछाईयां यूं ही चली आईं लगा कुछ ऐसा जैसे 'कल’ जिसे हमने साथ जीया था बस पल में सिमट भर रह गया हो। वो जेएनयू का सपाट सा रास्ता तुम्हारी सुगंध से महकता हुआ, नहीं-नहीं, वो तो बासी रजनीगंधा की बेकरार सी एक महक थी! वो कोने वाली कैंटीन की मेज जहां तुम बैठा करती थीं, कुछ झूठे चाय के कप, सांभर की कटोरी वहां अब भी रखे हुए हैं! डीटीसी की बस की कोने की सीट जहां तुम्हारे सुनहरे बाल और आंखे, धूप में चमका करते थे, अब वहां बस मैं अकेला बैठता हूं! वो दिन, जब हम पहली बार मिले थे, वो कूड़े वाला पासपोर्ट, वो बस के बोनट पर बैठ मुस्कुराती सी तुम तुम्हारा साथ, अब सब स्मृति तस्वीर में तुम्हारा साथ न आना दूर दूर चलते जाना वो लंबी बेचैनी , वो तन्हा थे दिन तुम्हारे लिए, मैने उम्मीद को जिंदा बनाए रखा, लगता था मुझे तुम आओगी पास