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Showing posts from May, 2009

कहानियों का गड़बड़-झाला

मेरे साथ तो अक्सर ऐसा होता है, आपका पता नहीं। जब भी लेख से अलग हट कोई कहानी वगैरह लिखने बैठता हूं, तो कुछ पंक्तियां लिखने के बाद ही बोरियत सी महसूस होने लगती है, नतीजा कहानी भी बोर हो जाती है। मैं ऐसी कहानियों में विश्वास रखता हूं, जो कल्पना के संसार मे न रची जाती हों, बल्कि उनका सृजन तो आम जीवन के बीच में होता हो। मतलब कहानियां यथार्थ से जुड़ी हुयी हों। जैसे गोर्की, प्रेमचंद, और अभय मौर्य की परंपरा रही है। लेकिन ऐसी कहानियां लिखने के लिये तो आपको यथार्थ को समझना पड़ता है, उसमें सिर्फ जीना ही नहीं होता, बल्कि उसका पूरी गहनता से अवलोकन करना होता है। तब कहीं जाकर आप अपनी कहानी के लायक कुछ सामग्री निकाल पाते हैं। यथार्थ को लिखने के लिये यथार्थ से घबराना नहीं होता बल्कि उसके सच को कलमब़द्ध करना होता है। गोर्की ने `मेरा बचपन´, `मेरे विश्वविद्यालय´, और `जीवन की राहों पर´, नाम से एक आत्मकथात्मक त्रयी लिखी है, जिसमें `अल्यूशा´ नाम के नन्हे से बालक के गोर्की बनने के बीच के संघर्षों की दास्तां है। दूसरी ओर मौर्य का जो उपन्यास मुझे सबसे ज्यादा पसंद आया, वो था ``मुक्तिपथ´´, हालांकि यह आत्मकथात्

बचपन

कितना मधुर समय होता है यह, हालांकि जब हम बच्चे होते हैं, तो लगता है कि बस कैसे करके बड़े हो जायें तो न जाने कौन सा किला हम जीत जायेंगे। लेकिन जैसे जैसे बड़े होते जाते हैं, तो जीवन के यथार्थ सामने आने लग जाते हैं, और हर दिन जारी जीवन संघर्ष लू भरी आंधियों के समान लगता है। जब मैं छोटा था, तो बहुत सा समय चित्रकारी, कहानियां पढ़ने और बागबगीचे में अक्सर पौधे लगाते हुये बीतता। पौधों के गमलों के लिये मिट्टी खोद कर लाना, और किस्म किस्म के पौधों को गमलों मे सजाना, मुझे बहुत भाता था। घर की लाईब्रेरी से चेखव, गोर्की या लु-शुन को पढ़ते हुए उपन्यासों के यथार्थ में डूब जाना, या अक्सर किसी चाचा चौधरी या साबू के किस्से को पढ़ते हुये, उसे रेखाचित्रों के माघ्यम से उकेरने का अनगढ़ प्रयास, इस सारे उल्लास से सराबोर था मेरा बचपन। जहां भी जाता कैमरा सदा एक आंख पर चिपका रहता, शायद बचपन में मेरे आसपास की हर सुनहरी याद को हमेशा के लिये खुद में कैद कर लेना चाहता हो। लेखन का जो मामूली प्रयास आप इस ब्लॉग पर देख रहे हैं, उसमे भी मेरे बचपन और आसपास के परिवेश का बहुत बड़ा योगदान है। हां पर मैथ की हर परीक्षा से पार पाना हिमा

गुलाल: तालिबान के राज़ का

फिल्मों का शौक तो बहुत है, लेकिन समय बहुत ही कम दे पाता हूं अपने इस शौक को, शायद यही कारण है कि जो समीक्षा मुझे 13 मार्च को ही लिख देनी चाहिये थी, उसे आज लिख रहा हूं। क्यों क्या हुआ अब तक नहीं समझ पाये कि हम ``गुलाल´´ की बात कर रहे हैं। अनुराग कश्यप फिर से हाज़िर हैं, अपनी एक अलग सी फिल्म के साथ। फिल्म की पटकथा अलगाववादी राजनीति के इर्द-गिर्द चक्कर काटते हुये, समाज के यथार्थ से जुड़े और भी कई ऐसे मुद्धों को उठा जाती है, जो हमें इन पर एक नये सिरे से सोचने पर मजबूर कर देते हैं। फिल्म राजस्थान के एक कस्बे में हॉस्टल की तलाश कर रहे कानून के एक विद्यार्थी दिलीप को दिखाती है, जिसकी उसके कालेज के कुछ गुंडे रैगिंग लेने के बाद एक कमरे में बंद कर देते हैं, जहा ``अनुजा´´ नामक उनकी एक शिक्षिका भी उनकी अभद्रता का शिकार बनने के बाद पहले से ही बंद होती है। बाद में अनुजा भी अपना हास्टल छोड़ दिलीप के साथ ही रहने लगती है, जो अपने दोस्त रणंजय की कोठी पर रह रहा होता है। फिल्म की कहानी उन रजवाड़ों को दिखाती है, जिन्होने लोकतंत्र को स्वीकार तो कर लिया है, लेकिन उनके सामंती विचार उन्हे वापस अपना राज कायम करने