मैं और आनंद जी इन दिनों दफ्तर से जरा झुटपुटा होते ही निकल लेते हैं। क्या करें आनंद जी की शिफ्ट जल्दी ही ओवर हो जाती है, तो मेरे साथ ही निकल चलते हैं। नुक्कड़ के दो-चार रेहड़ी वाले दुकानदारों से उन्होने दोस्ती कर रखी है।
उस दिन भी हम ऐसे ही एक रेहड़ी वाले के पास जाकर खड़े हो गए। बातचीत का सिलसिला चल निकला। बस में चढ़ने का टाइम हो रहा था, तो बातों का रुख भी बसों की ओर ही मुड़ गया। बस के हर पहलू, डीटीसी के डिसइंवेस्टमेंट, भीड-भड़क्का, ब्लूलाइन वालों की दादागिरी, हर पहलू पर बातें हुईं। वैसे रेहड़ी वाले भाईसाहब बहुत ही विद्वान जान पड़ रहे थे। अचानक से उन्होने हम दोनो का ध्यान बसों में महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार की ओर खींचने का प्रयत्न करा। मुझे उन प्रोग्रेसिव माईंडेड भाईसाहब की सोहबत में बडे़ हर्ष की अनुभूति हो रही थी। हो भी क्यों न, आखिर महिलाओं के प्रति पुरुषों की ऐसी उजली सोच बहुत कम ही देखने को मिल पाती है। लेकिन न मालूम अचानक से भाईसाहब को क्या हुआ, उन्होने ब्राहमणवाद के परम श्लोकों सा वज्रपात करते हुए कहा कि, महिलाओं के साथ जो कुछ भी होता है उसके लिए वे खुद ही तो जिम्मेदार हैं, किसने कहा है कि नौकरी करो, बसों में, सड़कों पर चलो?
मन में और भी सवाल उठ रहे थे, मसलन जॉब को छोड़कर महिलाएं सामाजिक प्रताड़ना से बचने के लिए, क्या कर सकती हैं? भाईसाहब ने बगैर देरी करे, इस पर भी कुछ प्रकाश डाला, ``महिलाओं का कार्य बस घर की चारदीवारी को संभालना भर होना चाहिए!´´ आनंद जी ने भी यह सब सुनकर चुप्पी साध ली, आखिर क्या बोलें बेचारे, ऐसे कलुषित विचारों को सुनकर। वाह रे मेरे हिंदुस्तानी तालिबान, हाय रे तेरे सड़े-गले विचार...
sahee likha hai aapne...ye bade durbhaagy ki baat hai,haalat badalne me waqt bahut lagega
ReplyDeleteजी हाँ और हालत तभी बदलेंगे जब लेखक पत्रकार और नौजवान व्यवस्था बदलने का काम अपने हाथों में ले लेंगे, आप के द्वारा निरंतर दिए जा रहे प्रोत्साहन के लिए दिल से शुक्रिया...
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