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Showing posts from April, 2009

प्‍यार

प्यार , जिस शब्द को शायद हम बचपन से ही सुनते आ रहे हैं , हालांकि उम्र के अलग अलग पड़ावों के साथ इस शब्द के मायने बदलते जाते हैं। बचपन में मां की गोद , और उसके लाड़ - दुलार से बढ़कर शायद कुछ नही लगता। कुछ और बड़े होते हैं तो , संगी साथियों के याराने के चलते न जाने पहाड़ जैसी ज़िन्दगी के कितने सारे टीले हम यूं ही चढ़ जाते हैं। जब युवावस्था में कदम रखते हैं , तो दिल एक ऐसे साथी की तलाश करने लगता है , जिसके पास रहकर , जिससे बातें करके सुकून सा मिलता हो , और जिसके साथ न होने से खालीपन और नीरवता सी दिल में सुलगती हो। और बड़े - बूढ़ों के मुंह से हमने उम्र के उस पड़ाव के भी किस्से सुने हैं , जब प्रेम अपनी उच्च अवस्था में होता है , उसका स्वरूप परस्पर गहरा हो चुका होता है। अभी बुढ़ापा बहुत दूर है , और बचपन की स्मृतियां इतनी स्पष् ‍ ट नहीं हैं , याराने की चर्चा किसी दिन और करेंगे , फिलहाल प्यार के उस स्वरूप को आपसे बांटना चाहता हूं , जिसे मै हर वक्त

दि रिर्टन(वोज़व्राशेनिये)

फिल्म बनाना एक कला है, और यह कला रूस को अपने सोवियत युग से बतौर विरासत प्राप्त हुयी है। आज भी रूसी निर्देशक ऐसी फिल्में बना रहे हैं, जो भावनात्मक रूप से जनता के बीच अपनी पैठ बनाने में सक्षम हैं। अभी पिछले दिनो ऐसी ही एक फिल्म दि रिर्टन देखने का मौका मिला, फिल्म ऐसे दो बच्चों की कहानी है, जिन्हे उनका पिता 12 सालों के बाद मिलता है, और कुछ दिनो तक उनके जीवन पर छा जाता है, लेकिन कहानी का सबसे भावनात्मक हिस्सा तो उसका अंत ही है। फिल्म की शुरुआत होती है, समुंदर में, एक ऊंची मचान से छलांग लगा रहे कुछ लड़कों से। जिसमें से वान्या ऊंचाइयों से घबराता होता है, जबकि उसका भाई आन्द्रेई निडर होता है। इसी बात को लेकर अगले दिन स्कूल में सब वान्या का मजाक उड़ाते हैं, और जब वान्या और आन्द्रेई लड़ते-झगड़ते अपने घर पंहुचते हैं, तो उन्हे 12 साल बाद घर लौट कर आये अपने पिता के आगमन का पता चलता है। आन्द्रेई तो शुरू से ही अपने पिता से हिल जाता है, जबकि वान्या अपने पिता से हमेशा आशंकित रहता है। अब पिता अपने दोनो बच्चों को एक दूर के टापू पर कुछ दिनो की सैर पर लेकर जाता है, रास्ते में वान्या और उसके पिता के सबं