आज बहुत सी यादों को अलविदा कहने का दिन था, मसलन हमारे कॉलेज की लाईब्रेरी को ही ले लीजिए जिसमें न जाने कितने सारे अच्छे पल बिताए हैं, तीन साल तक पल-पल उसके प्यार की सुगबुगाहट को महसूस किया है, कितने सारे एग्जाम्स के नोट्स वहीं पर कलम घिस-घिसकर तैयार किए हैं, कल अपनी इस पुरानी जगह से एक नए रूम में शिफ्ट हो जाएगी। आज आखिरी दिन उसने(लाईब्रेरी ने) बड़ी बेरुखी दिखाई। खैर यह वही कॉलेज है जिसमें प्रो. ओम गुप्ता, महेश सर, शशि नैयर सर, धर सर, अमिय मोहन सर, और पवन सर जैसे दिग्गजों ने जहां हमारी प्रतिभा को तराशा वहीं पूजा मैम, शिखा मैम, हनी मैम, सुप्रज्ञा मैम, सिल्की मैम व किरण मैम के स्नेह ने हमेशा हमारे लक्ष्य की राह पर हमें अडिग रखा। इसी कॉलेज में अक्षर-अक्षर जोड़ कर हमने टाइप करना और लिखना सीखा, आशुतोष और शुक्ला जैसों के साथ बहुत से गंभीर मुद्दों पर जमकर बहसें भी हुईं। जिंदगी के बहुत से सबक जिनसे शायद भविष्य में दो-चार होना पड़े, वे भी हमें इसी दौरान सीखने को मिले। तो जनाब आज इतनी सारी यादों को अलविदा कहने का दिन था, खैर ऑफिश्यल अनाउंसमेंट(फेरवेल) में अभी समय है, लेकिन मेरे इस दिल पर तो कुछ ऐसी ही गुजरी।
तीन साल पहले जब मैं इस कॉलेज में आया था तो यह तो पता था कि पत्रकार बनना है, लेकिन उस समय कोई भी मुझे देखता तो उसे मेरे पत्रकार बनने पर शुबहा ही होता। कारण भी था, मैं बहुत दब्बू था, पहले दिन ही रैगिंग के डर से आशुतोष का हाथ पकड़कर बाहर निकला था। यह डर समय के साथ कब गायब हो गया पता ही नहीं चला। बगल में मौजूद जेएनयू के माहौल का हम सब पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। वहां की चट्टानो में भी हमें जिंदगी का संगीत सुनाई देता था, कितनी दोपहरें हमने वहां फोटोग्राफी करते गुजारी हैं, और फिर थककर गोपालन जी की कैंटीन की किसी मेज किनारे पसर जाना। इस दौड़ में हमने बहुत से वर्चस्व के संघर्षों को भी झेला, खासतौर से जिसे मीडिया की भाषा में 'पालिटिक्स’ कहा जाता है। और साधारण भाषा में इसका अर्थ है कि एक शख्स खुद को ऊपर उठाने के लिए दूसरे की प्रतिभा को कुचलकर आगे बढ़ जाता है। तरह-तरह की तिकड़मी शख्सियतें भी इस दौरान हमसें दो-चार हुईं। पर आखिर में मैगी नूडल्स के पके हुए रसे की तरह हम एक-दो साथी ही एक दूसरे के साथ रह गए। दोस्ती क्या होती है, वो मुझे इस कॉलेज से जानने को मिला।
अब आखिर में तो मुझे लिख ही लेने दो, अपने दिल की बात कहने ही दो। इस कॉलेज से जिंदगी में पहली बार प्यार के विरले अनुभव का भी मुझे मौका हासिल हुआ। बेशक इकतरफा ही सही, लेकिन प्रेम तो प्रेम ही होता है। न जाने क्यूं इन दिनों (या शायद पिछले जमानों में भी) प्रेम को चमक-दमक, पैसे, जायदाद, और स्मार्टनेस से ही जोड़कर क्यूं देखा जाता है? क्या गंवारों(नर्डस) को प्रेम करने का अधिकार नहीं है, या यह कुछ एलीट क्लास के सदस्यों के लिए ही बनाया गया है। जो उनकी सोसाइटी के तौर तरीके अपना लेता है, उसे वे प्रेम करने का स्पेशल पास इश्यू कर देते हैं! तब भी चाहे आशु इसे इंफेच्युएशन(आकर्षण) ही क्यूं न कहे, लेकिन हमने तो इसके सिवा प्रेम के किसी दूसरे रूप को अभी जाना ही नहीं, सामने वाला कभी इधर को इंफेच्युएट हुआ ही नहीं और गाड़ी आगे ही नहीं बढ़ी।
पढ़ाई! बाप रे, पिछले तीन सालों के दौरान करीब ३२ विषयों की पढ़ाई कर डाली। तीसरी दुनिया से लेकर चौथी दुनिया तक इस दौरान सब ओर दौड़ लगा ली, शायद पत्रकारिता इसे ही कहते हैं। जैसा की पूजा मैम अपने हर लैक्चर में कहा करती थीं,
'जैक ऑफ ऑल ट्रेड, मास्टर ऑफ नन’,
पर मुझे लगता है इसे मास्टर ऑफ सम कर दिया जाए तो बहुत बेहतर रहे। इस पढ़ाई में ऐसा कहीं न कहीं जरूर महसूस होता रहा कि अकादमिक स्तर पर हमारे विश्वविद्यालय को बड़े पत्रकारों से सलाह करके जरूर चलना चाहिए जिससे कि सेलेबस ऐसा बनाया जा सके जो बच्चों को आगे फील्ड के लिए तैयार कर सके, वर्तमान सेलेबस में यह बात जरूर खलती रही। हमें कांच का गुड्डा बनाने की कोशिश जरूर की गई, पर जरा बाहर निकल कर तो देखिए, यहां तो पी साईनाथ जैसे और प्रभाष जोशी जैसे पत्रकार काम करते हैं, जिनके ड्रेस सेंस का ख्याल बेशक उन्हे न हो, लेकिन इस देश को किन बुनियादी परिवर्तनों की आकंाक्षा है इसका ज्ञान उन्हे खूब है।
इंटरव्यू लेने की हमारी कला को बेशक थिएटर वाले सुरेश शर्मा जी ने नकार दिया हो, पर तब भी ओम सर की क्लासों के लिए की गई रिपोर्टिंग के दौरान हमें बड़ी-बड़ी हस्तियों का साथ नसीब हुआ, जिनके विनम्र स्वभाव और बौद्धिक स्तर के हम कायल हो गए। फिल्मों का ऐसा चस्का पड़ा कि दुनिया भर के प्रोग्रेसिव और यथार्थवादी सिनेमा के फैन हो गए। जनवादी तबकों में भी इस दौरान खूब बैठना रहा, जिसका असर हमारी उभरती हुई सोच पर बखूबी पड़ा।
खैर इस रामकहानी पर तो मैं पोथियां लिख सकता हूं, बहुत दिनों के बाद अवकाश और कलम टिपटिपाने का मौका जरूर मिला है। पिछले कुछ महीनो से एक मासिक पत्रिका राष्ट्रीय प्रवक्ता में उप संपादक के रूप में तैनात था, अभी छुट्टियों पर हूं, तो ब्लॉग पर भी नजर आ रहा हूं। पर आज तीन साल की यादें और भड़ास आपके साथ बांट लेने से खुद को कुछ हल्का महसूस कर रहा हूं।
(6 मई 2010 को प्रकाशित)
school aur college ke din woh sunhare din hote hain , jo dil ki gehraiyon main hamesha ke liye kaid hote hain.
ReplyDeleteबिलकुल ठीक शीतल जी, और उन्हें भुला पाना भी इतना आसान नहीं होता...
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