फिर से एग्ज़ाम शुरु होने वाले हैं, रोज-रोज की इस बला से अब उक्ताहट भी होने लगी है। कभी-कभी लगता है कि एग्ज़ाम बंद हो जाने चाहिएं, लेकिन फिर सोचता हूं कि बौद्धिक स्तर को जांचने का इससे बेहतर विकल्प और क्या हो सकता है। शायद यही कारण है कि शिक्षाविद एग्जाम्स को आउट-कास्ट करने से बचते रहे हैं, लेकिन क्या वाकई?
इम्तिहान या एग्ज़ाम ऐसे दानव का नाम है जो शुरु से बच्चों को डराता आया है। कारण शायद विषय पर कमजोर पकड़ भी या फिर कम समय में बहुत ज्यादा ठूंसने की मजबूरी, या फिर फेल हो जाने का डर। एग्जाम सिरदर्द ज्यादा बनते हैं, बच्चों के लिए भी और शिक्षकों के लिए भी। कोर्स खत्म करवाने से लेकर, उत्तर जांचने सरीखे बहुत से काम होते हैं जो परेशानी का सबब बनते हैं। इतनी सारी परेशानियां होते हुए भी एग्जाम सबसे ज्यादा उम्दा तरीका समझा जाता है। इसके बहुत से कारण हो सकते हैं, सबसे प्रमुख तो यह कि हमारे देश में कोई एकीकृत शिक्षा प्रणाली नहीं है, डीपीएस जैसे स्कूल होने के बावजूद भी बच्चे गांवों और कस्बों के इंटर कॉलेजों में जाया करते हैं! वाकई कितनी अजीब बात है, मैरी अंतोनेत जिंदा होती तो शायद यही कहती। अब होता यह है कि अगर कोई प्रोग्रसिव सा शिक्षाविद कोई प्रोग्रेसिव सी शिक्षा नीति बना भी दे तो होता क्या है कि कान्वेंट में पढ़े बच्चे तो उसे आसानी से टॉप कर जाएंगे लेकिन देहात के बच्चे को यही समझने में समय लग जाएगा कि डिबेट-डिस्कशन का मतलब कया होता है। और अगर मतलब समझ भी लिया तो गजब के कांफिडेंस और गिटपिट अंग्रेजी के आगे आखिर कितनी देर तक वो ठहर पाएगा। लेकिन विडंबना यह भी है कि एकिकृत शिक्षा नीति न होने के कारण सीबीएसई तो अपने पाठ्यक्रम को लचीला स्वरूप देने में कामयाब हो जाता है जबकि राज्य शासित शिक्षा बोर्ड वही अस्सी वर्ष पुराना स्वरूप बनाए हुए हैं।
एग्ज़ाम होने का सबसे ज्यादा फायदा भी शिक्षकों को होता है, एग्ज़ाम के पूरे सीज़न तो पढऩे-पढ़ाने से भी पूरी तरह से छुट्टी रहती है, अगर दूर के किसी केन्द्र पर ड्यूटी लगी तो टीए-डीए अलग से मिलता है। एग्ज़ाम सीज़न के बाद कॉपी जांचने का जब समय आता है तो और भी मजे, जितनी ज्यादा कॉपी जांची उतने ज्यादा पैसे मिले उसपर खाना पीना अलग अलाउंस अलग। कई सरकारी और प्राईवेट स्कूलों का हाल तो इतना बुरा है कि शिक्षक क्लास में स्लेबस पूरा ही नहीं करवाते और उसे इतना बोझिल बना देते हैं कि बच्चों को कई विषयों से नफरत ही हो जाती है। बाद में यही शिक्षक उसी विषय का प्राईवेट ट्यूशन देते हैं, कमाई का एक और तरीका। किसी राज्य की सरकार ने कुछ वर्ष पहले सरकारी शिक्षकों के ट्यूशन पढ़ाने के कार्य को अवैध घोषित कर दिया था। लेकिन यह नाकाफी ही साबित हुआ क्योंकि इस सब के बावजूद भी शिक्षकों ने कक्षाओं के माहौल को बोक्षिल बनाए रखा।
इस देश में प्राईवेट एड्यूकेशन के नाम पर बहुत ही विकट समस्या को पाल पोस कर बड़ा किया जा रहा है। इसके पीछे दलील काम करती है कि जो खरीद सकता है उसे क्यों न अच्छी शिक्षा मुहैया करवाई जाए। लेकिन बाकियों का क्या करें भाई! दूसरी परेशानी है कि अधिकतर शिक्षक सिर्फ इसलिए ही शिक्षक हैं क्योंकि वो किसी और जॉब के लिए पर्फेक्ट नहीं थे। इस समय बेहतर शिक्षा का केन्द्र शहरों में है। चलिए क्यूबा का उदाहरण लेता हैं, १९५९ में क्यूबा की मुक्ति के बाद शहरों के स्कूलों में पढ़ाने वाले अधिकांश शिक्षकों का ट्रांसफर गावों में कर दिया गया था। इस सब का नतीजा है कि आज क्यूबा की साक्षरता दर ९५ फीसदी है। वहां उच्च स्तर तक की शिक्षा मुफ्त है, मतलब जितना जी चाहे मुफ्त में पढ़ो।
शिक्षा से शील का आगमन भी होना चाहिए लेकिन पब कल्चर को अपनाने वाला हमारा पढ़ा लिखा यूथ इस बात को लेकर तो सचेत है कि कहीं उसके किसी अधिकार का हनन तो नही हो रहा, लेकिन दूर-दराज के लोगों के बारे में सोचते वक्त या फिर सड़कों पर घूम रहे अनपढ़ भिखारियों को देखकर उसकी चेतना का हास होने लगता है, और वो इन सब मुद्दों पर वही रटी-रटाई पोथियां दोहराने लगता है जो उससे पहले की पीढिय़ां अब तक दोहराती आई हैं। इसलिए फिलहाल तो इतनी सारी रुकावटों के कारण एग्जाम्स से मुक्ति पाना आसान नहीं लग रहा है।
वैसे तो यह टाइटल युवा कथाकार अनुज जी के कहानी संग्रह और उसमें पहली कहानी का है, लेकिन इस समय जो किस्सा मैं यहां कहने जा रहा हूं, उसके लिए मुझे यह बिल्कुल सटीक लगा। जिन लोगों ने यह कहानी पढ़ी है वो समझ ही गए होंगे कि मैं राजधानी के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के 'विद्रोही जीÓ की बात करने जा रहा हूं। अनुज जी की कहानी भी पीडीएफ के रूप में इस आलेख के आखिर में दे रहा हूं। रमाशंकर यादव विद्रोही को जेएनयू में गोपालन जी की लाईब्रेरी कैंटीन में बैठे हुए अक्सर देखा जा सकता है। बहुत से नए आने वाले लोग उन्हे पागल के तौर पर ही पहचानते हैं, तो कुछ वामपंथी मित्रों के लिए वे एक ऐसे शख्स हैं जो दुनिया बदलने की कोशिश में दुनिया से ही बेगाने हो गए। विद्रोही से पिछले महीने तक मेरा कोई परिचय नहीं था, उनके बारे में जानने की उत्सुकता तो बहुत हुई, पर कभी उनसे पूछने का साहस नहीं जुटा पाया। अभी कल रात को ही, बीबीसी की वेबसाइट पर उनकी तस्वीर देख और नाम पढ़कर चौंक सा गया। धक्का सा लगा कि यही वो विद्रोही जी हैं, जिनके बारे में काफी कुछ सुना व पढ़ा है। खबर यह है कि पिछले हफ्ते विश्वविद्यालय ...
वाह
ReplyDeleteअत्यंत उत्तम लेख है
काफी गहरे भाव छुपे है आपके लेख में
.........देवेन्द्र खरे
धन्यवाद देव जी उत्सावर्धन के लिए...
ReplyDeleteपल्लवजी आपने अपने इस छोटे-से लेख में हमारी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था और उसकी असफलता की नब्ज टटोली है. क्यूबा का उदाहरण यदि हमारे शिक्षाशास्ञियों की समझ में आ जाये तो सचमुच एक क्रांति का मार्ग प्रशस्त होगा. लेकिन शिक्षा को व्यवसाय में तब्दील कर चुके इस अराजक और बाजारू समय में यह मुश्किल नजर आता है. खासकर तब जब शिक्षा में भी शैवाल की तरह भ्रष्टाचार और राजनीतिक हस्तक्षेप जड़ों तक फैला है और बढ़ रहा है.
ReplyDeleteबहरहाल आपकी पोस्ट अच्छी लगी. बधाई.
धन्यवाद सर, और सबसे दुखद पहलू तो यह है की निम्न वर्ग शिक्षा से वंचित रह कर भी कुछ इसलिए नहीं कर पाता क्योंकि उसे खुद की शक्ति का कोई एहसास ही नहीं है, और हमारा अपना माध्यम वर्ग, जो बहुत कुछ कर सकने की स्थति में है हर चीज से इसलिए संतुष्ट हो जाता है क्योंकि चाहे लोन लेकर ही सही वो इस स्थिति में तो जरूर है की शिक्षा को खरीद पाए...
ReplyDeleteअभी अभी 'नया ज्ञानोदय' का मीडिया विशेषांक मिला. आपके page header पर बना चिञ इस बार के 'नया ज्ञानोदय' के कव्हर पर भी है खैर इसका कहीं उल्लेख नहीं है. लेकिन देखते ही ध्यान गया.
ReplyDeleteभाई जिस दिन शिक्षा मंत्रालय मानव संसाधन मंत्रालय बना उस दिन ही शिक्षा की दुर्दशा तय हो गयी थी।
ReplyDeleteधन्यवाद प्रदीप सर, नया ज्ञानोदय के अंक में बहुत मुमकिन है कि उन्होने इन तस्वीरों को इंटरनेट से उठाकर ग्राफिक किया हो। यहां से उठाना इसलिए भी मुमकिन नहीं क्योंकि रिसोल्यूशन कम होने के कारण प्रिंट में दे पाना मुश्किल है।
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धन्यवाद अशोक सर, लेकिन मुझे लगता है कि शिक्षा की दुर्दशा उसके पहले भी तटस्थ ही थी, कोई अच्छी नहीं थी। लेकिन अब तो उसी मानव को संसाधन के रूप में विकसित किया जा रहा है जिसके खुद के पास अच्छा खासा "संसाधन" मौजूद हो।