उम्मीद है कि आज रात ऑटो चालकों की दिल्ली में दो दिनो से जारी हड़ताल भी खत्म हो जाएगी। साथ ही हम यह भी उम्मीद करते हैं कि ट्रैफिक पुलिस के जिस भ्रष्ट रवैये को लेकर यह हड़ताल हुई थी, उस पर भी कुछ नकेल कसी जाएगी। लेकिन इस हड़ताल के और भी कई पहलू ऐसे थे, जिन पर विचार कर लेना जरूरी है।
ट्रैफिक पुलिस का रौब-दाब आपको जबतब दिल्ली की सड़कों पर दिख ही जाएगा। ठीक भी है, बहुत से अनुशासन-हीन चालकों पर लगाम लगनी ही चाहिए। लेकिन परेशानी तब होती है जब ट्रैकिफक पुलिस अपनी वर्दी का नाजायज इस्तेमाल करती है। अपनी पॉकेट गर्म करने के लिए वो बेमतलब चालान काटती है। अब ऐसे में अगर कोई ऑटो वाला इस सब में फंस जाए तो एक बार में ही उसकी पूरे महीने की कमाई चली जाती है। इस सारी भ्रष्ट-तंत्र के खिलाफ ही यह आज की और कल की हड़ताल थी।
वैसे हड़तालों से परेशानी तो होती है, खास तौर से तब ,जब बुनियादी सुविधाएं मुहैया करवाने वाले संस्थान मसलन स्वास्थ्य सेवाएं, परिवहन या जल/विद्युत वितरण से संबंधित संस्थाएं जब हड़ताल पर चले जाते हैं। हड़तालें जरूरी भी हैं, जब अत्याचार ही कानून की शक्ल में सामने आए तो संघर्ष करना जरूरी हो जाता है। लेकिन संघर्ष अगर एक अनुशासित और संगठित तरीके से किया जाए तभी उसका कोई सकारात्मक नतीजा निकल कर आता है। इस हड़ताल के विषय में ऐसा नहीं कहा जा सकता। पहले तो ज्यादातर ऑटो चालकों को यह तथाकथित ऑटो यूनियनें अपने साथ नहीं ले पाईं। दूसरे जब ऐसा करने में वो असफल रहीं तो उन्होने कुछ गैंग बनाकर, हड़ताल के बावजूद भी चल रहे ऑटो को तोडऩा फोडऩा शुरु कर दिया। चालकों की पिटाई की गई, यहां तक कि सवारियों को भी नहीं बख्शा गया। इसका नुकसान यह हुआ कि एक तो पहले से ही ऑटो चालक इस हड़ताल से कट रहे थे, बाद में वे इसके खिलाफ भी हो गए। एक संगठित यूनियन कभी भी ऐसे काम नहीं करती है।
मुझे याद आते हैं वो पुराने दिन, जब हड़तालें हुआ करती थीं। मजदूरों, कर्मचारियों, नौजवानो या छात्रों के कतारबद्ध समूहों से सड़कें पट जाती थीं। हवाओं में इंकलाबी नारों का गर्जन रहता था, और तनी हुई मु_ियों का जोश तो देखते ही बनता था। उन हड़तालों का एक संगठित तरीका होता था, क्योंकि उनकी लीडरशिप बहुत ही ज्यादा संघर्षशील लोगों में से आती थी, उन दिनों गुण्डाराज नहीं चला करता था। बाद में भ्रष्ट सरकारों ने अपने निजी फायदों के लिए गुण्डों को प्रोमोशन देना शुरु किया, और संगठित यूनियनों को धीरे-धीरे इन्ही गुण्डों के दम पर कुचला जाने लगा। इसका एक उम्दा उदाहरण बाल ठाकरे है, जिसने उस दौर में गुण्डागर्दी करके अपना बिजनेस चलाया, उसे सरकार का भी पूरा-पूरा संरक्षण प्राप्त हुआ। इसका कारण भी था, ऑर्गनाईज्ड यूनियनस को कुचल कर मालिकान अपने पक्ष को मजबूत करना चाहते थे, और सरकारों ने इसमें उनक भरपूर साथ भी दिया। नतीजा आज हम सब के सामने है, महाराष्ट्र का मजदूर वर्ग सबसे कमजोर स्थिति में है, वो शोषण के पाट तले कराह रहा है। वहीं महाराष्ट्र को द्वेष की एक ऐसी जहरीली भट्टी में ठाकरे ब्रिगेड ने बदल दिया है, जिससे उबर पाना उसके लिए नामुमकिन नहीं तो मुश्किल जरूर होगा।
हड़ताल, यूनियन इत्यादी कुछ ऐसी चीजें है जिनको अपनाया ही इसलिए गया था क्योंकि किसी भी लोकतांत्रिक समाज में अपनी बात कह पाने का और उसे मनवा पाने का सबसे सकारात्मक तरीका यहीं थीं। इन्हे कितने ही अकाट्य तर्क देकर खत्म करने की कोशिशें बेशक की जाएं, लेकिन इनके प्रभावी होने की बात से हू इंकार नहीं कर सकते हैं। हमें अपनी गलती माननी होगी, कि हमने यूनियनों के स्वरूप को बिगाड़ कर उसकी कमान गुण्डों के हाथ में दे दी। और आज हड़ताल के दौरान जब सड़क पर सरेआम गुण्डे हमें पीटते हैं तभी हमें इसी बात का एहसास होता है।
अब हमें ही तय करना है कि हमारे लोकतंत्र की दिशा क्या होनी है, क्या इसे कुछ गुण्डों, वाईस चांसलरों, फैक्टरी मालिकों या मैनेजरों की मनमानी का सबब बनना चाहिए, या फिर समूचे जन-जन की व्यापक राय को इसे प्रकट करना है, इसका फैसला हमे ही करना होगा!
वैसे तो यह टाइटल युवा कथाकार अनुज जी के कहानी संग्रह और उसमें पहली कहानी का है, लेकिन इस समय जो किस्सा मैं यहां कहने जा रहा हूं, उसके लिए मुझे यह बिल्कुल सटीक लगा। जिन लोगों ने यह कहानी पढ़ी है वो समझ ही गए होंगे कि मैं राजधानी के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के 'विद्रोही जीÓ की बात करने जा रहा हूं। अनुज जी की कहानी भी पीडीएफ के रूप में इस आलेख के आखिर में दे रहा हूं। रमाशंकर यादव विद्रोही को जेएनयू में गोपालन जी की लाईब्रेरी कैंटीन में बैठे हुए अक्सर देखा जा सकता है। बहुत से नए आने वाले लोग उन्हे पागल के तौर पर ही पहचानते हैं, तो कुछ वामपंथी मित्रों के लिए वे एक ऐसे शख्स हैं जो दुनिया बदलने की कोशिश में दुनिया से ही बेगाने हो गए। विद्रोही से पिछले महीने तक मेरा कोई परिचय नहीं था, उनके बारे में जानने की उत्सुकता तो बहुत हुई, पर कभी उनसे पूछने का साहस नहीं जुटा पाया। अभी कल रात को ही, बीबीसी की वेबसाइट पर उनकी तस्वीर देख और नाम पढ़कर चौंक सा गया। धक्का सा लगा कि यही वो विद्रोही जी हैं, जिनके बारे में काफी कुछ सुना व पढ़ा है। खबर यह है कि पिछले हफ्ते विश्वविद्यालय ...
काफी समय से कुछ नया Edit नहीं हो रहा है. संभवतः व्यस्तता होगी. हिंदी साहित्य के महत्वपूर्ण blogs में आपका ब्लॉग पर भी मेरी सूची में है. और हो सके तो ब्लॉग का कवर या कहें themes बदल सके तो बदल दें भाई बड़ा विभत्स है खैर ब्लॉग के नाम अनुकूल भी है. फिर भी ...
ReplyDelete- प्रदीप जिलवाने, खरगोन म.प्र.
माफ़ कीजियेगा प्रदीप जी, बीते दो महीनों से बहुत ही ज्यादा व्यस्त चल रहा हूँ...जल्द ही बहुत से नए किस्से आप मेरे ब्लॉग पर पढ़ पाएंगे...कोशिश करूंगा की पेज हैडर पर जो तस्वीर पडी है उसे कुछ हद तक सुधार पाऊं | लेकिन जाने क्यों फिर भी लगता है कि हमारा समाज कहीं ज्यादा वीभत्स है, और शायद यहाँ भी उसका ही कुछ अक्स नजर आता है...जान कर सुखद अनुभूति हुई कि आप मुझे पढ़ रहे हैं, धन्यवाद साथी...
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