आज सुबह दफ्तर के लिये घर से निकला तो लेट हो गया था, तो सोचा कि चलो आटो ले लिया जाये। एक बार पर्स खोलकर चेक किया कि पर्याप्त पैसे हैं भी या नहीं। पर्स के अंदर से पचास रुपये का एक नोट बाहर झांक रहा था, उसकी मुस्कुराहट देखकर दिल खुश हो गया और सडक से गुजर रहे आटोरिक्शा की तरफ हाथ हिला दिया।
एक एक करके आठ आटो रुके और चले गये लेकिन गंतव्य पर पहुंचाने के लिये कोई भी दिलेर तैयार नहीं हुआ। सुबह का वक्त था और दिल्ली का पारा जान निकाले दे रहा था। खैर एक महाशय जैसे तैसे करके रुके और दफ्तर पहुंचाने के लिये तैयार हो गये। मीटर आन था, सब कुछ दुरुस्त था। मुझे सुकून मिला।
दफ्तर आया तो मैने उन्हे पचास का नोट थमा दिया। मीटर में चालीस रुपये किराया बना था। आटो वाले ने नोट हाथ में लिया, उसकी तह को तफसील से खोला, फिर नोट को बारीकी से जांचा। अचानक उसके चेहरे पर वैसा भाव उभर आया जैसे क्लू मिल जाने पर पेशेवर डिटेक्टिव के चेहरे पर उभर आता है। उसने नोट मुझे वापस कर दिया और बोला बीच में से फटा हुआ है, नहीं चलेगा, सवारी स्वीकार नहीं करेगी।
मैने कहा बंधुवर मेरे पास यही जमापूंजी है आप स्वीकार कर लीजिये रास्ते में कहीं से चिपका लीजियेगा। उसने बोला ठीक है दस रुपये और दीजिये। मैं थोडा सख्त हुआ तो बोला कि रास्ते में नोट चिपकाने के लिये कुछ खरीदना पडेगा1 खैर जैसे तैसे मोलभाव करके चार रुपये पर सौदा पटाया और बंधुवर आटो वाले को विदा किया।
मुझे लगता है कि दिल्ली के बहुत से लोगों को आटो वालों के इस सरीखे बर्ताव से प्राय: ही गुजरना पडता होगा। यह देश जिस तरह से रामभरोसे चल रहा है, जिस तरह से यहां के सिस्टम में छोटी छोटी तिकडमें जगह पा गई हैं उसे देखकर तो यही लगता है आप कितना भी ढोल पीट लें वह नक्कारखाने में तूती की आवाज जैसा ही प्रतीत होगा। पर क्या करें आदत से मजबूर हैं, ब्लागिंग का सहारा ही बचा है दिल हल्का करने के लिये पर लगता है आने वाले दिनों में इस पर भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं रहने वाली है।
एक एक करके आठ आटो रुके और चले गये लेकिन गंतव्य पर पहुंचाने के लिये कोई भी दिलेर तैयार नहीं हुआ। सुबह का वक्त था और दिल्ली का पारा जान निकाले दे रहा था। खैर एक महाशय जैसे तैसे करके रुके और दफ्तर पहुंचाने के लिये तैयार हो गये। मीटर आन था, सब कुछ दुरुस्त था। मुझे सुकून मिला।
दफ्तर आया तो मैने उन्हे पचास का नोट थमा दिया। मीटर में चालीस रुपये किराया बना था। आटो वाले ने नोट हाथ में लिया, उसकी तह को तफसील से खोला, फिर नोट को बारीकी से जांचा। अचानक उसके चेहरे पर वैसा भाव उभर आया जैसे क्लू मिल जाने पर पेशेवर डिटेक्टिव के चेहरे पर उभर आता है। उसने नोट मुझे वापस कर दिया और बोला बीच में से फटा हुआ है, नहीं चलेगा, सवारी स्वीकार नहीं करेगी।
मैने कहा बंधुवर मेरे पास यही जमापूंजी है आप स्वीकार कर लीजिये रास्ते में कहीं से चिपका लीजियेगा। उसने बोला ठीक है दस रुपये और दीजिये। मैं थोडा सख्त हुआ तो बोला कि रास्ते में नोट चिपकाने के लिये कुछ खरीदना पडेगा1 खैर जैसे तैसे मोलभाव करके चार रुपये पर सौदा पटाया और बंधुवर आटो वाले को विदा किया।
मुझे लगता है कि दिल्ली के बहुत से लोगों को आटो वालों के इस सरीखे बर्ताव से प्राय: ही गुजरना पडता होगा। यह देश जिस तरह से रामभरोसे चल रहा है, जिस तरह से यहां के सिस्टम में छोटी छोटी तिकडमें जगह पा गई हैं उसे देखकर तो यही लगता है आप कितना भी ढोल पीट लें वह नक्कारखाने में तूती की आवाज जैसा ही प्रतीत होगा। पर क्या करें आदत से मजबूर हैं, ब्लागिंग का सहारा ही बचा है दिल हल्का करने के लिये पर लगता है आने वाले दिनों में इस पर भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं रहने वाली है।
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