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यूटोपिया का चस्का

कई बरस हो गए राहुल जी की एक पुस्तक पढ़ी थी, ‘‘साम्यवाद ही क्यों’’, बहुत प्रेरणा देने वाली पुस्तक या यूं कह लीजिए पुस्तिका थी। राहुल दा के बाद आए बहुत से प्रकांड विद्वानो ने यहां तक कि प्रोग्रेसिव विद्वानो ने भी इस पुस्तिका को यूटोपियन बताकर इसकी आलोचना की थी। लेकिन सच मानिए तो इस पुस्तिका ने मेरे विकसित होते युवा मन पर गहरा प्रभाव छोड़ा था।
नौकरी करना एक अच्छी बात है, पैसा कमाना और भी अच्छी बात है, लेकिन ऐसा भी क्या पैसा क्या नौकरी कि आपका पूरा वक्त पूरी जिंदगी बस उन्ही की गुलाम बन कर रह जाए। राहुल दा ने एक बात लिखी थी, कि ऐसा समय भी आएगा ‘‘जब इंसान का एक घंटे का श्रम उसके लिए पूरी जिंदगी की रोटी की व्यवस्था कर देगा।‘‘ इस पोस्ट को पढ़ने वालों को मैं मूरख प्रतीत हो सकता हूं,। लेकिन इससे भी एक बात तो साफ हो ही जाती है कि हम ऐसे समय में जी रहे हैं जहां इस तरह की बातें सोच पाना तक असंभव समझा जाता है, और ऐसा सोचने वालों को यूटोपीयन घोषित कर समाज से अलग-थलग करने की पूरी कोशिश की जाती है। कहा यह जाता है कि मुझ जैसे लोग बस हर वक्त अपनी कल्पनाओं में खोए रहने वाले ‘‘धुनिराम‘‘ हैं, हमें डोन किखोते का अवतार साबित करने की कोशिश भी की जाती है। वैसे कल्पना करने में कोई बुराई नहीं है, अच्छी कल्पनाएं, अच्छे सपने , एक अच्छे और नए कल के निर्माण के लिए जरूरी होते हैं। लेकिन दो तरह के लोगों को काल्पनिकों से चिढ़ हो जाती हैः पहले श्रेणी में वह लोग आते हैं जिन्हे ढेर सारा पैसा कमाना और हर वक्त पैसा कमाने के नए नए तरीकों के आविष्कारों में ही खोए रहना पसंद है, इन जैसे लोग हम जैसों को अपना वर्ग शत्रु मानते हैं। दूसरी श्रेणी में वो शामिल हैं जो प्रोग्रेसिव तो हैं, लेकिन जरा यथार्थवादी हैं, उनके लिए मैं वर्ग शत्रु तो नहीं लेकिन वर्ग शत्रु से कम भी नहीं।
खैर जीवन मेें इंसान को सिर्फ रोटी की ही तो जरूरत नहीं, उसे बाकी तमाम सुविधाओं मसलन रहने के लिए मकान , घूमने के लिए गाड़ी, स्वास्थय सेवाओ इत्यादि बुनियादी सुविधाओं की भी जरूरत होती है। फिर ऐश अशरत पर भी मन ललचा ही जाता है। बैल जैसी बीवी भी पल्ले से बांध दी जाती है, कि लो अब अपनी जिम्मेदारी तो संभाल पा नहीं रहे हो इस टमटम को भी संभालो। आगे बाल-गोपालों का बोझ भी उठाने के लिए आप मजबूर हो जाते हैं। तो ऐसे में एक इंसान कैसे रचनात्मक कार्यों में दिल लगा सकता है। कॉलेज के दिनों में शुक्ला एक बात कहा करता था, ‘‘आप दिल लगा कर जंगल में एक शेर की फोटोग्राफी कैसे कर सकते हो, जब आपके पीछे एक खूंखार शेरनी खड़ी हो?‘‘ तो ऐसे में एक और यूटोपीयन ख्याल दिमाग में आता है, कि ‘‘अगर ऐसा हो एक इंसान के पैदा होने के दिन से उसके रुख्सत होने के दिन तक का सारा निर्वाहन देश की सरकार करे, सरकार ही उसे नौकरी दे, शिक्षा दे, खाना दे, मकान दे, मोटर दे, और सोशल सिक्योरिटी की उसके लिए व्यवस्था करे‘‘, इंसान को नौकरी के बारे में सोचकर पढ़ाई बीच में ही न छोड़नी पड़े, बल्कि कुछ ऐसा हो कि वह जितना जी में आए उतना पढ़े, फिर अपनी सामर्थय को वह समाज कल्याण में , राष्ट्र निर्माण में लगाए और खाली बच गए बहुत से समय का रचनात्मक इस्तेमाल करे। अगर चित्रकारी पसंद हो तो वह करे , फोटोग्राफी अच्छी कर सकता हो तो जंगलों में बेशक घूमता फिरे, कहानियां अच्छी लिख सकता हो तो फिर साहित्यकार ही बनें। मतलब यह कि जीवन निर्वाहन की चिंता उसके व्यक्तित्व उसके रुझान में बाधक न बनें। राहुल दा कहते थे , ‘‘साम्यवाद का ध्येय है, सारे देश या विश्व को एक सम्मिलित परिवार बना देना और देश की सारी संपत्ति को उस परिवार की संपत्ति करार कर देना। भारत-जैसे देश में जहां कि जीवन की सभी आवश्यक चीजें उत्पन्न की जा सकती हैं- काम है, वार्षिक आवश्यकता का अंदाजा लगाकर उसके उत्पादन के लिए सारे परिवार के आदमियों में काम बांट देना। और फिर उत्पन्न चीजों को भी आवश्यकतानुसार दे देना है। स्वस्थ आदमी को खाना-कपड़ा, स्वच्छ मकान, बीमार के लिए दवा और पथ्य और लड़कों के लिए शिक्षा का प्रबंध भी हो गया, बस काम खतम। नफा तो दूसरे की मेहनत की चोरी का प्रतिष्ठित नाम है। उसके लिए साम्यवाद में स्थान नहीं है।‘‘
हो सकता है, जो कुछ मैने यहां लिखा वह आप लोगों को थोड़ा कंफ्यूसिंग लग रहा हो, तो इसका सिर्फ एक ही समाधान है, किताब महल प्रकाशन को फोन कीजिए और महापंडित राहुल सांकृत्यायन की पुस्तिका ‘‘साम्यवाद ही क्यों‘‘ मंगाकर पढ़ लीजिए। क्या मालूम यूटोपिया का चस्का आप को भी लग जाए।

Comments

  1. pallav ji
    sabse pahle aapko thanks ki aapne bhale hi do mahine lagaye ho likhne me,par waqt lekar aapne accha alekh likha. padhkar accha laga,aur kuch baatein sochne par majboor kar deti hain.
    waise Rahul da ki kitaab maine padhi nahi hain,kabhi mauka mila to zarur padhungi.
    jaise aap likhte hain ki agar sarkar paida hone se marne tak har aadmi ki social securities ki jimmevari le le to aadmi apni creative work par nishchint hokar dhyaan de sakta hain.
    sarkar dhyaan to deti hain lekin apne aur apne parivaar ki rishtedaro ki social securities par.
    isiliye to itne ghotale hain.
    kash ki Rahul da ke hisaab se desh ki saari sampati par sabka samaan adhikar ho to wakai kitna accha ho.
    aise hi aap apni kalam ka upyog un sohye hue jamir ke logo ko jagane ke kaam me lagaye.

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  2. kya baat hain Pallav ji, aapki kalam kyun hain itni khamosh.

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  3. माफ कीजिएगा शीतल जी, जिंदगी एक तनावपूर्ण विषय है इतना तनावपूर्ण कि उसपर लिखना भी तनावपूर्ण ही लगता है, लेकिन भरोसा रखिए जरा इन तनावों से उबर जाऊं तो बस फिर वापस लौट आउंगा इसी जगह, सच में वापस लौट आऊंगा।

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  4. shukriya pallav ji ki aapko meri rachna pasand aayi...
    zindagi sangharsh hain,aur ham nirantar is sangharsh se jhujhte rehte hain.chah kar bhi ham isse bach nahi sakte.ek positive soch ke saath isse mukabla kijiye,aur dekhiyega aap jarur sab tanav se ubar jaayenge. muskura ke kijiye muqabla is tanav ka.

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