चलिए इस लंबी आलस से भरी हुई चुप्पी के बाद कुछ बात करते हैं, भारीभरकम मुदृदों को कुछ और पल आराम के दे देते हैं। चलिए आज के पूरे दिन की बात करते हैं। ज्यों-ज्यों धरती हमारी सूरज से दूरियां बढाने में जुटी है, त्यों-त्यों जिंदगी की तरह दिन भी कुछ ज्यादा ही सर्द महसूस होने लगे हैं। सर्दी के कपडे बाहर निकलने को तैयार, और हाफ बाजू बुशर्ट को अगले साल तक के लिए विदा। सुबह आज इन्ही जरूरी कामों के साथ हुई। वैसे इन दिनों किताबों से ज्यादा फिल्मों से दोस्ती कर रखी है, साथी कोंपल ने कोई दो-एक साल पहले एक फिल्म क्लब बनाने का जिक्र किया था, वो तो बन नहीं पाया फिल्मों से मेरा जुडाव और गहरा होता गया। माफ कीजिएगा, बात करते-करते मैं फ्लैशबैक में न मालूम क्यों चला जाता हूं, शायद आशुतोष ठीक ही कहता था मैं एक वक्त में बहुत सी बातें सोचता रहता हूं शायद। खैर हम आज सुबह की बात कर रहे थे, सुबह टीवी पर अमेरिका के बेहद पॉपुलर कार्टून कार्यक्रम रगरैट्स पर फिल्म आ रही थी। बस फिर क्या था सब कुछ छोडकर उसे ही देखने बैठ गया। न मालूम क्यों मुझे वो कार्यक्रम, मैगजीन, किताबें इत्यादी अब भी इतने अच्छे क्यों लगते हैं जिनका मैं बचपन में दीवाना हुआ करता था। समय बडा हो गया पर मैं नही शायद। लेकिन मुझे यह देखकर बेहद अफसोस होता है कि बडे होने की होड में लोग अपने बचपन को भुला देते हैं, या फिर पबों, डिस्को, मैक-डी और काफी डे में जाने वाले इस बहुलतावादी तबके का खुद का एक व्यक्तित्व होता है, एक ऐसा व्यक्तित्व जो मेरे घर वालों के लाख चाहने के बाद भी मुझ में नहीं पनप पाया। मैं बहुलतावादियों में से एक नहीं हूं, इसका मुझे कभी अफसोस नहीं हुआ, कुछ चीजों को छोडकर।
दूसरी बात जो आज की दुखदायी घटना कही जा सकती है, वो है दिवाली की मिठाइयों के चलते मेरी तबियत के हल्का-फुलका गडबडा जाने को लेकर। हां अब मैं शीतल जी को जरूर सलाह दे सकता हूं कि पटाखे न छोडने के साथ साथ, मिठाइयों पर भी ज्यादा भरोसा न करें। एक जमाना होता था, जब घरों में होली के अव्सर पर गुझिया, पंजीरी वगैरह बना करती थीं, दिवाली चूंकि सर्दियों का त्यौहार है तो मेवों से सुसज्जित लड्डू इस मौसम के लिए तैयार किए जाते थे। लेकिन बचपन की बाकि चीजों की तरह यह सब भी दूर अतीत का हिस्सा बन चुका है, व्यस्तता के चलते अब इस सब की फुर्सत कहां।
शाम हुई तो अखबार के एक पन्ने पर नजर गई, सलमान खुर्शीद साहब हिंदुस्तान टाइम्स की बुक वॉल स्कीम को सपोर्ट कर रहे हैं। यह स्कीम अवीवा व हिंदुस्तान समूह का इनीशिएटिव है। इन लोगों ने दिल्ली वालों की मदद से 93,000 पुस्तके गरीबों के भारत को मुफ्त में उपलब्ध करवाई, खुद कपिल सिब्बल साहब ने इस कार्यक्रम में मौजूद रहकर इसकी शोभा बढाई। अब जब सरकार की मंशा में शिक्षा का स्थान अहम न होकर ओबामा का स्थान अहम है, तो हम इन निजी व्यापारियों और शिक्षा का व्यवसाय करने वाले सलमान साहब जैसे लोगों से ही उम्मीद कर सकते हैं कि वो कमसे कम कुछ हजार लोगों का मुफ्त में किताबे तो उपलब्ध करवा ही रहे हैं। बाकि अरबों का भारत अब सार्वजनिक शिक्षा के रहे सहे साधनो से भी हाथ धोने जा रहा है। वैसे इंडिया शाइनिंग और कांग्रेस शाइनिंग में यकीन रखने वालों के लिए यह कोई बडा मुद्दा नहीं है। ओबामा भारत पधारे यह उनके लिए बडी खुशी की बात है, संघी लोग भी बेमन से ओबामा का छिटपुट विरोध करते नजर आए, लेकिन सुदर्शन चक्र का असली निशाना यूपीए की शिक्षा नीतियां न होकर सीआईए की कथित ऐजेंट सोनिया जी बन गईं। बस यही आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलता रहता है, संपादकगण इसी पर खुश होकर चुटकी लेते रहते हैं, और असली मुद्दे अनगिनत आहों में घुटकर दम तोड देते हैं।
आप सोच रहे होंगे कि कॉम्नवैल्थ इतना अच्छा मुद्दा था, कलमनवीस साहब उस पर क्यों नहीं कुछ बोले। तो जनाब मैं तो सही मौके की ताक में था, कुछ उसी तरह जैसे बिल्ला अपने शिकार पर झपटने को तैयार रहता है। आज मौका मिल ही गया। शाम ढले, पेट दर्द से परेशान मैं, बोरियत में टीवी के चैनल बदल ही रहा था कि नजर पडी दूरदर्शन पर, जो सोलहवें ऐशिआड की ओपनिंग सेरेमनी दिखा रहा था। इस बार यह चीन के गुआनझू में आयोजित किए जा रहे हैं। उसी समय फेसबुक खोला तो पता चला कि गौरव भाई भी इसके ऊपर कुछ टिपटिपा चुके हैं, उनकी टिप्पणी मेरे पूरे विक्षोभ की अभिव्यक्ति के लिए काफी है; ''गुआनझू में ऐशियन खेलों का स्वागत समारोह भी गजब का आकर्षक रहा, कलमाडी वहां बैठा हुआ था, और उसे सीखना चाहिए था कि कैसे बडे आयोजन भी बिना भ्रष्टाचार के संभव हो सकते हैं''।
खैर चलते-चलते एक बात और, चौदह नवंबर को, कैनवास भी जेएनयू के स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज में बंग महोत्सव का आयोजन कर रहा है। इस महोत्सव के केन्द्र में रहेगी एक फोटोग्राफ प्रदर्शनी जिसमे प्रीतम दा के कहने पर मैने भी अपनी कुछ तस्वीरों को भेजा था, तो उम्मीद है आप लोग यहां जाएंगे और कार्यक्रम का आनंद उठाएंगे। यह संयोग ही है कि इसी दिन ठीक एक साल पहले हमने भी आइरिस नाम से एक फोटोग्राफ प्रदर्शनी आयोजित की थी।
खैर चलिए निकलते बढते, विक्षोभ पर दोबारा मिलना होगा, तो जैसा रूसी लोग कहा करते हैं, दस्वीदानिया, फिर मिलेंगे।
* चित्र साभार- विश्व प्रसिद्ध कलाकार 'पाब्लो पिकासो' की 'स्टिल लाइफ'
aakhir aalas tut hi gaya,
ReplyDeleteapne is aalekh main mera zikr karne ke liye shukriya,waise aap meri swasthya ki taraf se befikr rahe kyunki humare yaha hamesha ghar main hi mithaiya banati hain,aap ki tabiyat theek nahi hain,aap apni tabiyat ka dhyaan rakhe.
ab aapke is aalekh ki taraf chalte hain, is baar kuch alag sa likha aapne,jo wakai padhkar accha laga,bachpan ki masumiyat ko kabhi apne dil se mat nikalna chahe zamana kuch bhi kehta rahe.cartoon dekhne ka shauk mujhe bhi bahut hain,bachpan main mai phantom ki kitabe bade chav se padha karti thi,aur sauchti thi ki hakikat main phantom hota hain.
ek baar fir is khubsurat aalekh likhne ke liye aapko badhai deti hun. aur ek warning bhi saath main agli baar aalekh likhne main do mahine mat laga dena.aalas karke apni zimmedariyon se bhag jana netao ka kaam hota hain,aap jaise jimmedar logo ka nahi.
waise mera ek aur blog bhi hain kabhi waqt mile to zaroor aaiyega. http://kiseeaurkahaniyonkiduniya.blogspot.com
apni sehat ka khyaal rakhiyega.
bye.
शुक्रिया शीतल जी, आप की कही बातों का ध्यान रखूंगा। :)
ReplyDeleteab aapki tabiyat kaise hain.
ReplyDeleteaapki tippani ke liye shukriya.
ReplyDeletemain theek hun.
Do din late se hi sahi.
ReplyDeleteaapko Nav varsh ki hardik subhkamnai.
yeh naya saal kare aapke sare khwaab saakar.
mujhe bhi yeh trailer pasand aaya.
ReplyDeletethnx mujhe yeh link bhejne ke liye.
ab jaldi hi yeh film bane taki jyaada
se jyaada log vidrohi ji ke vyaktitv aur
unki kavitaon se rubaru ho sake unhe jaan sake.