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जनता से रूबरू करवाती: पीपली लाइव

peepli_live १५ अगस्त पर राजधानी में हुई बारिश के बाद लोग अपने घरों में दुबके हुए थे, प्रधानमंत्री भी लालकिले पर औपचारिकता पूरी करके वापिस लौट चुके थे। और युवाओं को शाम का इंतज़ार था, जब वे आजादी के नाम शाम का जश्र करेंगे। ऐसे में हम जा पंहुचे राजधानी के एक लो-प्रोफाइल सिनेमा हॉल में, आमिर खान की नई आई फिल्म पीपली लाइव देखने, अफवाह थी कि इस फिल्म को दर्शकों ने नकार दिया है, लेकिन सिनेमा हॉल में उमड़ी हुई भीड़ इस अफवाह को सिरे से नकार रही थी।
    पीपली लाइव, मध्य प्रदेश के एक छोटे से गांव पीपली में रहने वाले नत्था की कहानी है। सरकारी ऋण न चुका पाने के कारण नत्था की जमीन डूबने वाली होती है। तभी एक छुटभैय्ये से उसके भाई को विदर्भ के किसानों की आत्महत्याओं के विषय में पता चलता है, और साथ ही यह भी कि सरकार मरने वाले किसानों के परिवार को लाख रुपए मुआवजा भी दे रही है। दोनो भाइयों में बहस के बाद फैसला होता है कि नत्था जमीन बचाने के लिए आत्महत्या करेगा। सूबे के एक लोकल अखबार का रिपोर्टर राकेश इस खबर को लपक लेता है, और जल्द ही यह खबर राजधानी के सबसे बड़े टीवी चैनल पर हाईलाइट हो जाती है। उस चैनल की एंकर इस खबर को कवर करने गांव में क्या पंहुचती है, कि सारे के सारे टीवी चैनलों को लावलश्कर जो अमूमन टीआरपी को लेकर भिड़ा रहता है, भी वहां पंहुच जाता है। नेताओं में भी दो गुट बंट जाते है, एक गुट नत्था के मरने की पैरवी करता है तो दूसरा गुट जो सूबे की सत्ता पर आसीन है, नत्था को मरने नहीं देना चाहता है जिससे कि उसकी गद्दी पर कोई आंच न आ जाए। इन सब दांवपेंचों में नत्था का जीवन तबाह हो जाता है, रिपोर्टर राकेश एक हादसे मे मारा जाता है और उसकी लाश को नत्था समझ कर मीडिया, नेता और पुलिस वहां से अपना डेरा समेट कर वापिस हो लेते हैं। लेकिन नत्था गया कहां, उसके परिवार को हर्जाने की रकम भी नहीं मिली क्योंकि उसका(राकेश) मरना तो एक हादसा था आत्महत्या नहीं। उधर नत्था गांव से भाग कर बहुत दूर राजधानी की एक कंस्ट्रक्शन साइट पर मजदूर हो जाता है और फिल्म भी समाप्त होती है।
    फिल्म का अंत एक बेहद मधुर ग्रामीण गीत से होता है, लेकिन तब तब दर्शक अपनी कुर्सियां छोडऩे लगे थे, और शायद इसी कारण वो फिल्म का मुख्य संदेश पढ़ ही नहीं पाए। नवउदारवाद की नीति के लागू होने के बीते बीस सालों में हमारे देश के आठ लाख से ज्यादा किसान, खेतीबाड़ी छोड़peepli_live3 देने पर मजबूर हुए हैं। विदर्भ देश का एक ऐसा इलाका है जहां से सबसे ज्यादा किसान आत्महत्याओं की बात सामने आई है। सरकार इसे रोकने का दावा करती है, और बिल्कुल फिल्म की तर्ज पर ही गेंद लुढ़का कर राज्य के पाले में डाल देती है, उधर राज्य भी किसानों की समस्या से निबटने का थोथा दावा जरूर करता है, लेकिन जमीनी स्तर पर कुछ भी नहीं हो पाता। केन्द्र में बैठे बड़े नौकरशाह आराम से चाय की चुस्कियां भरते हैं, और मामले को और उलझाने में अपनी सक्रिय भूमिका अदा करते हैं। राज्य में बैठे कलेक्टर व अन्य सरकारी कर्मचारी कोई ढंग की परियोजना न होने की बात कह कर किनारे हो जाते हैं या बहुत हुआ तो नत्था को एक बगैर पानी का हैंडपंप देकर उसकी गरीबी मिटाने की खानापूर्ति कर आते हैं। राज्य से केन्द्र में और केन्द्र से राज्य में यह तनातनी चलती रहती है, बिना सोचे समझे व्यर्थ की परियोजनाओं पर पानी की तरह पैसा बहाया जाता है। नेताओं के यहां तो नाश्ते से लेकर रात के खाने तक में एक से एक उम्दा भोजन बनते हैं, वहीं गांव के गरीब प्याज और सूखी रोटी के भरोसे ही अपना पूरा जीवन काट देते हैं।
    हमारे देश के मीडिया के 'बहुआयामीÓ चरित्र को भी यह फिल्म उभार कर सामने लाती है। अंग्रेजी का मीडिया जो बहुत प्रगतिशील होने का दम भरता है, अंतत: टीआरपी और पूंजी के मायाजाल में ही फंसा नजर आता है। वहीं हिंदी भाषी जनता की नब्ज जानने का दावा करने वाला एक चैनल, जो बहुत हद तक स्टार न्यूज़ से प्रेरित लगता है, कुछ और नहीं मध्य(मुख्य) प्रदेश की सत्ता में आसीन और राष्ट्रवादी होने का दंभ भरने वाली एक पार्टी का प्रचारक ही साबित होता है। राष्ट्रवादी चैनल के पत्रकार दीपक में हम इसी नाम वाले असली जिंदगी के एक बेहद मशहूर पत्रकार की झलक पा सकते हैं, वहीं अंग्रेजी चैनल की एंकर नंदिता मलिक का किरदार भी एनडीटीवी की एक मशहूर पत्रकार सा जान पड़ता है। एक ऐसे देश में जहां जनता व होरी जैसे लाखों किसान भूख से मर रहे हों, तब भी मीडिया को अपनी टीआरपी की पड़ी रहती है। ज्यादा से ज्यादा दर्शकों को आकर्षित करके अंतत: अधिक से अधिक विज्ञापनदाताओं से ज्यादा से ज्यादा पैसा बटोर पाना उनका मकसद रहता है। स्थानीय रिपोर्टर राकेश से होरी नामक उस किसान की मौत नहीं देखी जाती जो अपनी ही जा चुकी जमीन में मिट्टी खोद कर बेचा करता था, और एक दिन उसी गड्ढे में मरा पाया गया। पत्रकार राकेश नंदिता को भी बदलना चाहता है, पर अफसोस नंदिता इतनी ज्यादा प्रोफेशनल हो गई होती है कि इस तरह की मानवीय संवेदनाओं का अब उस पर कोई असर नहीं पड़ता । राकेश जिसका धीरे-धीरे हृदय परिवर्तन हो रहा होता है और जो भविष्य में जनता के हकों के लिए लडऩे वाला पत्रकार बन सकता था, आखिरकार नत्था को अपहर्ताओं से छुड़वाते हुए एक हादसे में मारा जाता है, सब उसे नत्था की लाश समझ लेते हैं, और इस तरह से राकेश के गायब होने का किसी पर कोई असर भी नहीं पड़ता है। दूसरी तरफ हिंदीभाषी चैनल का पत्रकार दीपक जिसका मीडिया की दुनिया में बहुत नाम और रुतबा है, फिल्म के अंत तक या तो ओछी चालबाजियों में लगा रहता है या फिर बचकानी खबरें रिपोर्ट करके जनता को बरगलाने का काम ही करता है।
    इस फिल्म का मुख्य कलाकार नत्था भी असल जिंदगी में एक मामूली सा कलाकार ही है। ओंकार दास मानिकपुरी अपनी असल जिंदगी में हबीब तनवीर के छत्तीसगढिय़ा नाट्य गु्रप 'नया थिएटरÓ के एक कलाकार हैं। आमिर खान इन दिनों कु छ हट कर फिल्में बनाने में लगे हुए हैं। उन्हे ओंकार दास का अभिनय इतना पसंद आया कि उन्हे लीड रोल में ले लिया गया है। वहीं दूसरी ओर फिल्म की डायरेक्टर अनुषा रिज़वी भी एनडीटीवी चैनल में अच्छे पद पर आसीन हैं। अन्य दूसरे कलाकार मसलन रघुवीर यादव जिन्होने नत्था के भाई बुधिया का किरदार निभाया है, भी बॉलीवुड के एक मशहूर अभिनेता हैं, और लंबे समय से थिएटर से भी जुड़े रहे हैं। लखनऊ में भी कुछ समय तक उन्होने काम किया है। राकेश का किरदार निभाने वाले नवाजुद्धीन सिद्दिकी भी समय-समय पर अलग हट कर बनने वाली फिल्मों में अपनी भूमिकाएं निभाते रहे हैं। नंदिता दास की फिराक में भी वे एक मुख्य भूमिका में थे। नसिरुद्धीन शाह से तो आप भलीभांति परिचित हैं ही।
    ग्रामीण परिवेश की छाप को और भी ज्यादा उभारने के लिए फिल्म के अंत में जिस लोकगीत का इस्तेमाल हुआ है 'चोला माटी के रामÓ उसे हबीब तनवीर की बेटी नगीन ने गाया है। इस गीत peepli_live2 को लेकर काफी विवाद भी रहा। अन्य गीत इंडियन ओशियन नामक एक पॉप म्यूजिक ग्रुप ने तैयार किए हैं। इस फिल्म का एक गीत जो जनता की जुबान पर जा चढ़ा वो है 'मंहगाई डायन खाय जात हैÓ। वर्तमान समय में जहां मंहगाई शहराती तबके की नाक में दम किए हुए है, वहीं गांवो में तो हालात और भी बदतर हैं, और गांववासियों का वही विक्षोभ इसी गीत के रूप में सामने आता है। एक अच्छी फिल्म से हमेशा यही शिकायत रहती है कि वो कभी भी जनता के बीच में नहीं पंहुच पाती और बुद्धिजीवी तबके के ड्राइंगरूम तक या फिल्म महोत्सवों तक ही सिमट कर ही रह जाती है(मसलन गुजरात दंगों पर बनने वाली बेहतरीन फिल्म नंदिता दास की फिराक को ही ले लीजिए जो आम जनता तक नहीं पंहुच पाई), लेकिन आमिर बड़े ही होशियार निकले और प्रचार के जबर्दस्त माध्यम व मीडिया में अपनी साख का प्रयोग करते हुए उन्होने इस फिल्म को जन-जन तक पंहुचा ही दिया। फिल्म ने बेहतरीन कमाई करते हुए श्याम बेनेगल के उस दावे को भी झुठला दिया जिसमें वो कहते हैं कि यथार्थपरख सिनेमा कमाई नहीं कर सकता है।
    कुल मिलाकर यह एक बेहतरीन फिल्म रही। ग्रामीण परिवेश की गालीगलौज भरी भाषा के इस्तेमाल के चलते सेंसर बोर्ड ने इसे एडल्ट श्रेणी में रिलीज़ करवाया। लेकिन तब भी मेरे अनुसार इस फिल्म को देखा जाना इसलिए जरूरी है क्योंकि यह हमें उस छद्म आवरण से बाहर निकालती है जो मीडिया और नेता हमारे चारों ओर बुने जा रहे हैं, और हमारा परिचय ऐसे भारत से करवाती है जो आज़ादी के ६३ वर्ष बीत जाने पर भी जीवन की बुनियादी सुविधाओं से मोहताज है और हरकदम पर जिसे आगे बढऩे के लिए इस पूरी व्यवस्था से जूझना पड़ता है जो उसे दबाने पर उतारू है।

Comments

  1. pallav ji aapka lekhan hamesha sarahniya raha hain. maine bhi is film ki taarif suni hain par abhi talak ye film dekhi nahi hain.
    ye sach hain media waale aur netagan har waqt apna apna swarth saadhte hain majburo ki majburi se inhe kya lena dena.
    aapko shaayad yaad ho munni ke saath bhi in media waalo ne tamasha banaya tha.

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  2. शुक्रिया शीतल जी मेरी रचनाओं को इतने मन से पढने के लिए और समय-समय पर मेरा उत्‍साहवर्धन करने के लिए।
    यह मुन्नी का क्‍या किस्सा था, याद नहीं आ रहा है, कृप्या मुझे इसके बारे में कुछ जानकारी दीजिए...

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  3. naam chahe koi bhi ho, munni ya kuch aur ye media aur samaaj kisi ko chain se jeene nahi deta.
    munni ki yeh dastaan kuch saal puraani hain,jab munni ka pati kargil ki ladai main gaya tha,ladai ke baad jab vo lota nahi to sarkaar ne use bhagoda ghoshit kar diya tha. munni ka dubara nikhaa hua aur kuch arse baad uska pehla pati laut aaya.ab shuruaat hui munni ki bebasi ki naami news channel main munni aur uske dono patiyo ko bulaaya gaya pucha gaya kiske saath rehna chahati ho, munni kya jawab dete chupchap pehle pati ke paas laut gayi us waqt wo grabhvati thi,agar media waale beech main nahi aate to shaayad koi sahi faisla wo le paati,pehle pati ke paas laut jaane ke kuch arse baad munni ki mrityu ho gayi. munni ki is ghatna par bollywood walo ne film banadi,jisme munni ka patra divya dutta ne nibhaya.

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