थिएटर देखने का मन बहुत दिनो से कर रहा था, कारण भी था, जब से सुरेश शर्मा जी ने इंटरव्यू बाइट लेते हुए अपनी महानता की झिड़की दी थी तब से इस माध्यम से मोह-भंग सा होता हुआ प्रतीत हुआ था। भोपाल के थिएटर कलाकार होणाजी भाई ने अभी कुछ ही दिन पहले सूचना दी कि वे रंग महोत्सव में भाग लेने के लिए दिल्ली आ रहे हैं, तब जाकर ही थिएटर की ओर फिर से ध्यान गया। और बस जा पंहुचे बहवालपुर हाउस में स्थित एनएसडी कार्यालय।
जैसे ही टिकट काउंटर के नजदीक पंहुचे तो देखते क्या हैं, एक लंबी सी तटस्थ क्यू। सोवियत रूस के अंतिम दिनों में राशन के लिए इस तरह की क्यू लगा करती थीं। यहां फर्क सिर्फ इतना है कि कला-दर्शन की अपनी क्षुधा शांत करने के लिए लोग कतार में लगे हुए थे किसी भी कीमत पर मनपसंद नाटक का एक टिकट पाने की ललक में। लेकिन अफसोस सुबह से शाम तक क्यू में लगे रहने के बाद भी नंबर नहीं आया, आशुतोष ने तिकड़म भिड़ाई और दो सज्जनों को पटा कर उनके जरिए चार टिकटों का इंतजाम करवा लिया। मनपसंद नाटक तो नहीं मिले पर जो मिले वो ही सही। आखिर नाटक करने वाले भी इंसान हैं कितने शो करेंगे एक ही नाटक के, कोई फिल्म तो है नहीं। बहुत से लोगों को मायूस भी लौटना पड़ा।
आज युवा पीढ़ी को दोष दिया जा रहा है कि वो थिएटर से कटती जा रही है, लेकिन इतने बड़े रंगमहोत्सव की इतनी लचर कार्यप्रणाली को देखकर तो यही लगा कि थिएटर जनता से कटता जा रहा है, और वाकई अब इसका मकसद रूस, चीन और अमेरिका घूम आना भर रह गया है। गांव-देहात के लोग अभी भी किसी सखाराम बाइंडर से परिचित नहीं और वो अभी भी अपनी उसी पुरानी रामचरित्रमानस के साथ जी रहे हैं, वहां कोई नहीं है उन्हे रोशनी दिखाने वाला।
वैसे तो यह टाइटल युवा कथाकार अनुज जी के कहानी संग्रह और उसमें पहली कहानी का है, लेकिन इस समय जो किस्सा मैं यहां कहने जा रहा हूं, उसके लिए मुझे यह बिल्कुल सटीक लगा। जिन लोगों ने यह कहानी पढ़ी है वो समझ ही गए होंगे कि मैं राजधानी के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के 'विद्रोही जीÓ की बात करने जा रहा हूं। अनुज जी की कहानी भी पीडीएफ के रूप में इस आलेख के आखिर में दे रहा हूं। रमाशंकर यादव विद्रोही को जेएनयू में गोपालन जी की लाईब्रेरी कैंटीन में बैठे हुए अक्सर देखा जा सकता है। बहुत से नए आने वाले लोग उन्हे पागल के तौर पर ही पहचानते हैं, तो कुछ वामपंथी मित्रों के लिए वे एक ऐसे शख्स हैं जो दुनिया बदलने की कोशिश में दुनिया से ही बेगाने हो गए। विद्रोही से पिछले महीने तक मेरा कोई परिचय नहीं था, उनके बारे में जानने की उत्सुकता तो बहुत हुई, पर कभी उनसे पूछने का साहस नहीं जुटा पाया। अभी कल रात को ही, बीबीसी की वेबसाइट पर उनकी तस्वीर देख और नाम पढ़कर चौंक सा गया। धक्का सा लगा कि यही वो विद्रोही जी हैं, जिनके बारे में काफी कुछ सुना व पढ़ा है। खबर यह है कि पिछले हफ्ते विश्वविद्यालय ...
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