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गलियों में बसी मेरी दिल्ली

purani_dilli जैसे रात के घने सन्नाटे के बाद प्रभात के आदित्य की पहली किरणें धरती का आलिंगन करती हैं, कुछ उसी तरह का अहसास मुझे इतने दिनों के बाद कलम उठाते हुए हो रहा है। बहुत से किस्से हैं बांटने के लिए, आप सोच रहे होंगे कि दिल्ली की गलियों का मेरे किस्सों से क्या संबंध? लेकिन पुरानी दिल्ली की गलियां कहीं न कहीं मुझे सम्मोहित करती रही हैं, कारण शायद यह भी कि यह मुझे मेरे शहर **** की याद तो दिलाती ही हैं लेकिन न जाने क्यों हर बार किसी न किसी तरह से मुझे एक किस्सा भी दे जाती हैं।
    आप यह जानने को उत्सुक होंगे कि आखिर वो कौन सी वजह रही जो मुझे इतने दिन कलम उठाने से दूर रखे रही? वजह कुछ बड़ी थी, इस सेमेस्टर में हमें ईवेन्ट प्लान करने होते हैं। मैं कॉरपोरेट ईवेंटस में विश्वास नहीं रखता, इसलिए सोचा कि क्यों न कुछ कलात्मक ईवेंट प्लान करूं! नतीजा सामने था, फोटोग्राफी एक्जीवीशन। शुरुआत में सोचा था कि खुद का पैसा लगाकर इसे कामयाब बनाने की कोशिश करेंगे, लेकिन फिर वीडियोकॉन, बीएचईएल, और ऑलटरनेटिव पैट्रोलियम टेक्रोलॉजिस से हमे मदद मिल गई। मदद भी इतनी मिली कि इस ईवेन्ट को हम पूरे दिल्ली के लेवल पर आयोजित करने में कामयाब हो पाए। हमने इस एक्जीवीशन का नाम रखा, आइरिस ०९।
    पुरानी दिल्ली की गलियां में, चाहे आप बल्लीमरान का जिक्र करें, या फिर मालीवाड़ा की,  आज वहां रिहायश रह ही नहीं गई है। अब ये गलियां तरह-तरह के बाजारों की पनाहगाह बन गई हैं। खैर कुद भी सही मुझे इन गलियों में से गुजरते हुए इतिहास की सुगबुगाहट महसूस होती है। मुझे सुनाई देता है, किसी बुजुर्ग का हुक्का गुडग़ुड़ाना, मस्जिद से आती अजान की मीठी सी आवाज अब भी सुनाई दे जाती है, यह बात कुछ और है कि पकौड़े वाले अब कागज की प्लेटों में पकौड़े सर्व करते हैं, और टिक्की वालों की दुकान पर पॉवभाजी भी अब मिलने लगी है। परांठे वाली गली तो इतनी मशहूर हो चुकी है कि वहां मिलने वाले परांठों के दाम दुगने-तिगुने हो चुके हैं। मेरे दोस्त, ग्रेटर नोएडा वासी आशुतोष का दम इन गलियों में घुस कर घुटने लगता है। बलजीत को भूख लगती है तो वो हमें मंहगे परांठे खिलाने को भी तैयार हो जाती है, और परमिंदर का तो चेहरा देखने लायक होता है जब उसके सामने मलाईदार लस्सी रख दी जाती है। किसी अच्छ खासे मैकडानल्ड का मुकाबला कर सकती हैं, यह पुरानी दिल्ली की गलियां। मेरा इन गलियों से पहला परिचय तब हुआ जब मैं १८५७ के महान गदर पर एक डॉक्यूमैंट्री फिल्म की शूटिंग के सिलसिले में यहां भटकता फिर रहा था। फिर तो दिल्ली के इस हिस्से के साथ कुछ अजीब सा रिश्ता कायम हो गया। सबसे ज्यादा दुख उस समय हुआ जब मैं पहली बार पुस्तके खरीदने दरियागंज के पटरी मार्केट पंहुचा और पता चला कुछ दिन पहले ही दिल्ली पुलिस उस जगह को उजाड़ चुकी है। इस बार भी, आइरिस के सिलसिले में इस जगह के बहुत से चक्कर लग रहे हैं। किसी न किसी चीज की जब तब जरूरत पड़ ही जाती है।
    इस ईवेन्ट में हम पूरे दिल्ली भर के उन सभी लोगों की कृतियों को समाहित करने जा रहे हैं, जो फोटोग्राफी को एक कला और संवाद के माध्यम के तौर पर देखते हैं। कोई बहुत ज्यादा बंदिशें भी हमने इसमें नहंी रखी हैं और न ही कोई थीम हम इसमें दे रहे हैं। बस एक ही मकसद लेकर चले हैं कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को हम इस मंच पर एकजुट कर सकें।  अभी तो इसी जुगत में लगे हैं कि  फोटोग्राफी के क्षेत्र की किसी नामी शख्सियत को हम इस ईवेन्ट का मुख्य अतिथि बनने पर राजी कर पाएं। और भी बहुत सी समस्याएं मुंहबाए खड़ी हैं, हमें सही समय पर सब कुछ बना कर तैयार कर देना है, पूरी सजावट कलात्मक हो इसका भी हमें ध्यान रखना है। साथ ही हमें यह भी सुनिश्चित्त करना है कि जिन लोगों को हम साथ लेकर चले हैं, उनके बीच भी समरसता कायम रख पाएं।
    बहुत से बुरे अनुभवों से भी हमें इस दौरान दो-चार होना पड़ा। सबसे ज्यादा विरोध हमें उस वर्ग के अपने साथियों की तरफ से झेलना पड़ा जो ईवेंट मैनेजमेंट को एक कॉरपोरेट अफेअर समझते हैं। लेकिन इस दौरान आशुतोष ने बहुत साथ दिया। समस्या यह भी थी कि हम इस सब में सही लोगों को साथ ले पाएं जो इस ईवेंट की कामयाबी सुनिश्चित्त करवा पाएं। पैसे को लेकर भी कुछ समस्या शुरुआत में हमने महसूस की। अपनी बात अधिक से अधिक लोगों तक पंहुचा पाना भी एक चुनौतीपूर्ण काम था।
    चलिए चलते-चलते थोड़ा सा विक्षोभ मैट्रो रेल प्रशासन पर भी उतार ही देते हैं। हुआ यूं कि हम एक इंस्टीट्यूट को अपने ईवेंट का आमंत्रण देने द्वारका जा रहे थे। कश्मीरी गेट से हमने द्वारका का टिकट खरीदा था, लेकिन हमे इस बात का इल्म नहीं था कि द्वारका और द्वारका सेक्टर नौ के टिकअ के मूल्य में कुछ अंतर है। सेक्टर नौ पर पंहुच कर हमने खुद को स्टेशन से बाहर निकलने में असमर्थ पाया। टिकट काउंटर पर बैठे सज्जन को बहुत तीव्र इच्छा हो रही थी कि कैसे भी करके वो हमारा ५२ रुपए का चालान काट ही दें। वो हमारी मजबूरी समझने को ही तैयार नहीं थे। हर बार की तरह हमारी जेबें भी तंगहाली का रोना रो रहीं थीें, खैर किसी तरह अपने सहयात्रियों के सहयोग से हम उन सज्जन पुरुष को विश्वास दिलवाने में कामयाब हुए कि हम वाकई ही मजबूरी में हैं। उसी टिकट से रिर्टन जर्नी करके वापस द्वारका लौटे और किसी तरह से इस समस्या से बाहर निकल। मैं आपको रिर्टन जर्नी करने की सलाह नहीं दूंगा क्योंकि पकड़े जाने पर उसका चालान २०० रुपए है। कुछ दिन पहले तक यह बावन रुपए का चालन महज ११ रुपए का होता था, लेकिन मैट्रो प्रशासन भी इसे आमवर्ग की सवारी बने रहना नहीं देना चाहता!

Comments

  1. उम्‍मीद करता हूं आप अपने इस इवेंट में और भी बहुत कुछ नया सीखते हुए अपने प्रयासों में सार्थक होंगे. लगे रहो भाई...
    बहरहाल बधाई एवं शुभकामनाएं..

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  2. धन्यवाद सर, यादों के सफ़र में यह इवेंट कुछ नए पन्ने जरूर जोड़ जायेगा, लेकिन साथ ही यह उन किरदारों को भी नजदीक से जानने का एक अच्छा अव्सर प्रतीत होता हुआ लग रहा है जिनके साथ मैं काम कर रहा हूँ, आने वाली कहानियों के बहुत से किरदार शायद यहीं से उठाऊं...

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  3. भाई आपका तेवर और आपकी पक्षधरता दोनों पसन्द आयी।
    ढेरों शुभकामनायें

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  4. धन्यवाद सर...

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  5. अब ये गलियां तरह-तरह के बाजारों की पनाहगाह बन गई हैं। खैर कुद भी सही मुझे इन गलियों में से गुजरते हुए इतिहास की सुगबुगाहट महसूस होती है। मुझे सुनाई देता है, किसी बुजुर्ग का हुक्का गुडग़ुड़ाना, मस्जिद से आती अजान की मीठी सी आवाज अब भी सुनाई दे जाती है, यह बात कुछ और है कि पकौड़े वाले अब कागज की प्लेटों में पकौड़े सर्व करते हैं, और टिक्की वालों की दुकान पर पॉवभाजी भी अब मिलने लगी है। परांठे वाली गली तो इतनी मशहूर हो चुकी है कि वहां मिलने वाले परांठों के दाम दुगने-तिगुने हो चुके हैं। मेरे दोस्त, ग्रेटर नोएडा वासी आशुतोष का दम इन गलियों में घुस कर घुटने लगता है। बलजीत को भूख लगती है तो वो हमें मंहगे परांठे खिलाने को भी तैयार हो जाती है, और परमिंदर का तो चेहरा देखने लायक होता है जब उसके सामने मलाईदार लस्सी रख दी जाती है.........

    आपकी लेखनी में पैनी धार है ...बहुत ही सशक्त लेखन ....!!

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  6. बहुत ही सुखद अनुभूती होती है जब आपको सराहा जाता है, धन्यवाद मैम प्रोत्साहन के लिए...

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