Skip to main content

धुंध के साए में बारिश

dhundh_baarish_story copy आसमान में घने बादल छाए हुए थे, रह रहकर बूंदे भी पड़ रहीं थीं, ऐसा लग रहा था कि तेज बारिश होने वाली है। साउथ कैंपस के अहाते में पड़ी बेंचों पर बैठे कुछ दोस्त आपस में बतिया रहे थे। कॉफी के सिपों के बीच बातचीत का दौर चल ही रहा था कि तभी अतुल वहां आ धमका, और उन सब के बीच जा बैठा। अतुल के आते ही सब के चेहरे फक्क पड़ गए। और जैसे कि उम्मीद थी अतुल ने आकर देश-विदेश की राजनीति को मुद्धा बनाकर डिंपल की टांग खींचनी शुरु की। इस सब से उक्ता डिंपल सब से विदा लेकर वहां से चली गई।
    अतुल कुछ बरस पहले ही दिल्ली आया था और पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहा था। इन दिनों सिर्फ एक कोर्स कर के पत्रकार बना जा सकता है, उसके लिए गहन अनुभव होने की जरूरत नहीं है। अतुल के अंदर भी  एक नामी पत्रकार बनने की तीव्र आकांक्षा थी। वो पत्रकारिता के दिग्गजों का अनुसरण करने का प्रयास करता रहता। ऐसे में बहुत सी चीजों को लेकर उसकी एक अजीब सी समझ बन गई थी। खुद ग्रामीण परिवेश से होने के बावजूद इतने बड़े स्तर पर फैली गरीबी उसे विचलित नहीं कर पाती थी। न ही इस बारे में वो बहुत ज्यादा चिंता करता था। उसे बस अपनी कामयाबी की चिंता ही हरदम सताती थी। बीते कुछ महीनो से अतुल अपने कैरियर को लेकर बहुत ही ज्यादा संजीदा हो गया था। बहुत से कंजरवेटिव पत्रकारों की तरह उसे भी गोधरा की हिंसा में फूल खिलते दिखाई देने लगे थे। वहीं डिंपल जनवादी छात्र-राजनीति से जुड़ी हुई थी। उसका अधिकांश वक्त इन्ही कंजरवेटिव हमलों को विफल करने में बीतता था। ऐसे में अतुल के हमलों का सीधा निशाना उसे ही बनना पड़ा। आए दिन अतुल उसकी जनवादी राजनीति को मुद्धा बनाकर उसे कोंचता रहता। वो जाने कहां से ढूंढ-ढूंढ कर मुद्धे लाता और डिंपल को उन सब के बीच घसीटने की कोशिश करता। रोज-रोज की इन बहसों से पत्रकार महोदय अपना सोशल बेस खोने लगे। लोग उसे सुनने के बजाय इगनोर करने लगे।
    उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ डिंपल के जाते ही अतुल जी वहां मौजूद आदित्य और मोहन के साथ ही बहस करने लगे। उसकी बातों से झुंझला कर जब आदित्य ने उसे झिड़क दिया, तो अतुल जरा नरम पड़ गया।  
    देखो आदित्य भइया, मैं तो बस इतना ही कह रहा था कि हमारी पढऩे लिखने की उम्र है, उसमेें राजनीति जैसी चीजों में उलझने की क्या जरूरत, इसलिए मैं डिंपल को बस समझाना भर चाह रहा था। अतुल भुरभुराया।
    अरे ओ, तू है कौन जो समझाने चला है। और फिर जब अन-बायस्ड या निष्पक्ष होने के नाम पर तू जो अनाप-शनाप लिखकर छपवाता फिरता है उसका क्या। इस बार मोहन ने मोर्चा संभाला।
    देखो मैं तो जो भी लिखता हूं, वो सब खबर होती है, अब उसका विश्लेषण करने में कुछ तो पत्रकार का नजरिया झलकता ही है न। वैसे सबसे ज्यादा हद तो आप साहित्यकारों ने कर रखी है, कहानी के नाम पर मनमानी करते हो, जो जी में आता है विचारों की अभिव्यक्ति के नाम पर लिख डालते हो, तुम लोगों पर तो बैन लगा देना चाहिए। अतुल ने जवाब दिया।
    बस करो अतुल, पैसा कमाने की होड़ में तुम जमीनी हकीकतों से इस तरह से कट जाओगे, इस तरह से तोते की तरह के रटे-रटे रटाए डायलॉग बोलने लगोगे, यह हम कभी भी सोच नहीं सकते थे। अब मोहन भी तैश में आने लगा था।
    इसी बीच बारिश भी तेज होने लगी थी, अतुल के खिसकते ही मोहन और आदित्य भी अवसरवादिता पर चिंता जताते हुए अपनी अपनी क्लासों की तरफ बढ़ गए।

Comments

Popular posts from this blog

कैरियर, गर्लफ्रेंड और विद्रोह

वैसे तो यह टाइटल युवा कथाकार अनुज जी के कहानी संग्रह और उसमें पहली कहानी का है, लेकिन इस समय जो किस्सा मैं यहां कहने जा रहा हूं, उसके लिए मुझे यह बिल्कुल सटीक लगा। जिन लोगों ने यह कहानी पढ़ी है वो समझ ही गए होंगे कि मैं राजधानी के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के 'विद्रोही जीÓ की बात करने जा रहा हूं। अनुज जी की कहानी भी पीडीएफ के रूप में इस आलेख के आखिर में दे रहा हूं।     रमाशंकर यादव विद्रोही को जेएनयू में गोपालन जी की लाईब्रेरी कैंटीन में बैठे हुए अक्सर देखा जा सकता है। बहुत से नए आने वाले लोग उन्हे पागल के तौर पर ही पहचानते हैं, तो कुछ वामपंथी मित्रों के लिए वे एक ऐसे शख्स हैं जो दुनिया बदलने की कोशिश में दुनिया से ही बेगाने हो गए। विद्रोही से पिछले महीने तक मेरा कोई परिचय नहीं था, उनके बारे में जानने की उत्सुकता तो बहुत हुई, पर कभी उनसे पूछने का साहस नहीं जुटा पाया। अभी कल रात को ही, बीबीसी की वेबसाइट पर उनकी तस्वीर देख और नाम पढ़कर चौंक सा गया। धक्का सा लगा कि यही वो विद्रोही जी हैं, जिनके बारे में काफी कुछ सुना व पढ़ा है। खबर यह है कि पिछले हफ्ते विश्वविद्यालय प्रशासन ने

कुछ तो लिखूं

वैसे लिखना बहुत दिनों से ही चाह रहा हूं, कॉम्‍नवैल्‍थ के ऊपर बहुत सा विक्षोभ प्रकट करना था, फिर आई रामलीला तो उस पर भी एक अच्‍छा आलेख तैयार करने का सोचा था, दिवाली पर भी कहने के लिए बहुत कुछ था, लेकिन हाय रे आलसीपन बीते दो महीने से कुछ भी नहीं लिखा, एक शब्‍द भी नहीं टिपटिपाया। शीतल जी भी अक्‍सर कुछ अच्‍छा पढने की चाह में मेरे ब्‍लाग का चक्‍कर लगाती थीं, लेकिन निराशा ही उनके हाथ लगती थी। लेकिन वे निरंतर मुझे लिखने के लिए कहती रहती थीं। चलिए इस लंबी आलस से भरी हुई चुप्‍पी के बाद कुछ बात करते हैं, भारीभरकम मुदृदों को कुछ और पल आराम के दे देते हैं। चलिए आज के पूरे दिन की बात करते हैं। ज्‍यों-ज्‍यों धरती हमारी सूरज से दूरियां बढाने में जुटी है, त्‍यों-त्‍यों जिंदगी की तरह दिन भी कुछ ज्‍यादा ही सर्द महसूस होने लगे हैं। सर्दी के कपडे बाहर निकलने को तैयार, और हाफ बाजू बुशर्ट को अगले साल तक के लिए विदा। सुबह आज इन्‍ही जरूरी कामों के साथ हुई। वैसे इन दिनों किताबों से ज्‍यादा फिल्‍मों से दोस्‍ती कर रखी है, साथी कोंपल ने कोई दो-एक साल पहले एक फिल्‍म क्‍लब बनाने का जिक्र किया था, वो तो बन नहीं पाया

यूटोपिया का चस्का

कई बरस हो गए राहुल जी की एक पुस्तक पढ़ी थी, ‘‘साम्यवाद ही क्यों’’, बहुत प्रेरणा देने वाली पुस्तक या यूं कह लीजिए पुस्तिका थी। राहुल दा के बाद आए बहुत से प्रकांड विद्वानो ने यहां तक कि प्रोग्रेसिव विद्वानो ने भी इस पुस्तिका को यूटोपियन बताकर इसकी आलोचना की थी। लेकिन सच मानिए तो इस पुस्तिका ने मेरे विकसित होते युवा मन पर गहरा प्रभाव छोड़ा था। नौकरी करना एक अच्छी बात है, पैसा कमाना और भी अच्छी बात है, लेकिन ऐसा भी क्या पैसा क्या नौकरी कि आपका पूरा वक्त पूरी जिंदगी बस उन्ही की गुलाम बन कर रह जाए। राहुल दा ने एक बात लिखी थी, कि ऐसा समय भी आएगा ‘‘जब इंसान का एक घंटे का श्रम उसके लिए पूरी जिंदगी की रोटी की व्यवस्था कर देगा।‘‘ इस पोस्ट को पढ़ने वालों को मैं मूरख प्रतीत हो सकता हूं,। लेकिन इससे भी एक बात तो साफ हो ही जाती है कि हम ऐसे समय में जी रहे हैं जहां इस तरह की बातें सोच पाना तक असंभव समझा जाता है, और ऐसा सोचने वालों को यूटोपीयन घोषित कर समाज से अलग-थलग करने की पूरी कोशिश की जाती है। कहा यह जाता है कि मुझ जैसे लोग बस हर वक्त अपनी कल्पनाओं में खोए रहने वाले ‘‘धुनिराम‘‘ हैं, हमें डोन किखोते