बारिश के उस दिन, कीचड़-पानी भरे फ्लाईओवरों के नीचे से निकलते हुए किसी तरह मैं और साथी महावीर बस पकडऩे में कामयाब हो गए। बारिश भरी सड़कों को चीरते हुए बस अपने गंतव्य की ओर सरकती जा रही थी, और मुझे इस बात पर खुशी हो रही थी कि कम से कम मुझे उन पानी भरी सड़कों को पैदल चल कर पार नहीं करना पड़ रहा था। मैं बाहर फैले प्रकृति के असीम नजारों को देखने में व्यस्त था कि तभी महावीर ने मुझे सामने वाली सीट पर जाकर बैठने को कहा, जहां वो लड़की बैठी हुई थी। जैसे ही मैं वहां पंहुचा, वो उठकर मेरी सीट पर आ गई, और मुझे उस सीट पर पहले से ही बैठे महानुभाव के साथ बैठना पड़ गया। बीच-बीच में अपनी उपस्थति दर्ज करवाने के लिए वे व्यर्थ की बकवास करने से भी नहीं चूकते थे। मैं काफी देर तक कंफ्यूसन में पड़ा रहा कि आखिर महावीर नें उस लड़की को मेरी सीट पर क्यों शिफ्ट करवा दिया? और जब बस से उतरते वक्त महावीर ने उस लड़की को समझाया कि, उसे लोगों की बदसलूकी का जवाब देना आना चाहिए, तब जाकर सारी बात समझ में आई।
वाकई ऐसे महानुभावों को देखकर विक्षोभ की अनुभूति होती है, जो भीड़ भरी बसों में महिलाओं के सफर करने को एक मौका मानते हों, और हर दम इस मौके को भुनाने की फिराक में रहते हों। और यह बात सिर्फ उस अधेड़ उम्र के महापुरुष पर ही लागू नहीं होती, बल्कि यह तो हमारे समाज की एक प्रवृत्ति बन चुकी है, और इसे बदले जाने की जरूरत है। साथी महावीर ने उस वक्त बस में जो हिम्मत दिखाई उसका मैं कायल हो गया, यह सब खुद को हीरो साबित करने के लिए नहीं किया गया था, बल्कि समाज के प्रति एक गहरी चिंता महावीर के इस कदम के पीछे थी। हमारे पुरुषों को महावीर के जैसी सोच अपनानी होगी, जिससे उस लड़की की तरह बहुतों के चेहरे पर मुस्कान खिल सके।
बीते कुछ दिनों से अत्याधिक व्यस्तता के चलते मैं अपने ब्लॉग पर कुछ भी नया नहीं लिख पाया हूं। इसके लिए आप सब से माफी चाहता हूं। कोशिश करूंगा कि कुछ महीनो से लिखने में जो निरंतरता आई थी वो आगे भी बनी रहे।
वैसे तो यह टाइटल युवा कथाकार अनुज जी के कहानी संग्रह और उसमें पहली कहानी का है, लेकिन इस समय जो किस्सा मैं यहां कहने जा रहा हूं, उसके लिए मुझे यह बिल्कुल सटीक लगा। जिन लोगों ने यह कहानी पढ़ी है वो समझ ही गए होंगे कि मैं राजधानी के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के 'विद्रोही जीÓ की बात करने जा रहा हूं। अनुज जी की कहानी भी पीडीएफ के रूप में इस आलेख के आखिर में दे रहा हूं। रमाशंकर यादव विद्रोही को जेएनयू में गोपालन जी की लाईब्रेरी कैंटीन में बैठे हुए अक्सर देखा जा सकता है। बहुत से नए आने वाले लोग उन्हे पागल के तौर पर ही पहचानते हैं, तो कुछ वामपंथी मित्रों के लिए वे एक ऐसे शख्स हैं जो दुनिया बदलने की कोशिश में दुनिया से ही बेगाने हो गए। विद्रोही से पिछले महीने तक मेरा कोई परिचय नहीं था, उनके बारे में जानने की उत्सुकता तो बहुत हुई, पर कभी उनसे पूछने का साहस नहीं जुटा पाया। अभी कल रात को ही, बीबीसी की वेबसाइट पर उनकी तस्वीर देख और नाम पढ़कर चौंक सा गया। धक्का सा लगा कि यही वो विद्रोही जी हैं, जिनके बारे में काफी कुछ सुना व पढ़ा है। खबर यह है कि पिछले हफ्ते विश्वविद्यालय ...
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