क्या किसी ने सोचा है कि जो जोकर पूरी दुनिया को हंसाता है, उसके खुद के दिल में ही कितना गम भरा पड़ा है, या फिर क्या हमने उस कवि के बारे में सोचा है, जिसकी कविताएं एक नई दुनिया का सपना देखती हैं, उसकी यथार्थ की जिंदगी कैसे रही होगी। नहीं हम ऐसा नहीं सोच सकते क्योंकि हमारी सोच तो बस उसके उसी स्वरूप तक सिमट कर रह जाती है, जैसा वो हमारे सामने नज़र आता है।
हां-हां आप ठीक समझे, राजकपूर की, मेरा नाम जोकर देख कर ही इस टिप्पणी को लिखने के लिए इंस्पायर हुआ हूं। वाकई क्या बेहतरीन फिल्म थी, राजू जोकर पूरी दुनिया को ताउम्र हंसाता तो रहता है, वहीं उसकी खुद की जिंदगी न जाने कितनी ज्वालाओं में सुलगती रहती है। ऐसा नहीं है कि यह कहानी सिर्फ राजू जोकर की ही हो, हमारे अपने जीवन में भी इस तरह के हजारों राजू मिल जाएंगे। जिनमें से हो सकता है कोई कवि हो, तो कोई थियेटर का कलाकार, कोई रैंप वॉक करने वाली मॉडल, तो कोई ऐसा मामूली सा इंसान जिसका काम इतना साधारण रहा हो कि उसे यहां लिख पाना संभव न हो सके।
अक्सर हम अपनी गफ़्लत में इतने बिज़ी रहते हैं कि हमें फुर्सत ही नहीं होती कि हम दूसरे को समझ पाने की कोशिश भी करें। और तो और जो प्रेमी अपनी प्रेमिका के साथ रोज-रोज जीने मरने की कसमें खाता है, उसे भी खुद कोई दिलचस्पी नहीं होती कि अपनी प्रियतमा को नज़दीक से जाने, उसे समझे। वैसे जानने की कोशिश भी क्यों करे, उसे हर दिन न जाने कितनी प्रियतमाओं से यह बात कहनी होती होगी, और हरेक के बारे में जानने लगा तो फिर चल गया उसका काम। हममें से बहुत से लोग आए दिन विक्रम सेठ, पाउलो कोहेलो या फिर चेतन भगत की रचना को सीने से लगाए घूमते रहते हैं(सच कहूं तो मैने अभी इन बेचारों को पढ़ा भी नहीं है), लेकिन हमें जरा भी परवाह उस लेखक की नहीं होती जो इन्हे लिखता है। बहुत हुआ तो उसके बारे में कोई रोचक तथ्य जान लेते है, मसलन चेतन भगत का आईआईटी से होना। लेकिन हम यह नहीं जानते कि लेखक किन परिस्थितियों में अपना उपन्यास रच रहा है। वैसे आजकल के लेखक इतने ज्यादा काल्पनिक हो गए हैं कि खुद के यथार्थ को ही वे भूल चुके होते हैं।
बस-बस ज्यादा बोर नहीं करूंगा, खत्म ही कर रहा हूं। अगर हम इतनी सी कोशिश भर करें कि जो कोई भी हमारे संपर्क में आता है, हम कम से कम उसे ठीक से जाननें की एक कोशिश भर करें तो न जाने कितने राजू जोकरों के जीवन में भी रंगो का आगमन हो पाएगा।
वैसे तो यह टाइटल युवा कथाकार अनुज जी के कहानी संग्रह और उसमें पहली कहानी का है, लेकिन इस समय जो किस्सा मैं यहां कहने जा रहा हूं, उसके लिए मुझे यह बिल्कुल सटीक लगा। जिन लोगों ने यह कहानी पढ़ी है वो समझ ही गए होंगे कि मैं राजधानी के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के 'विद्रोही जीÓ की बात करने जा रहा हूं। अनुज जी की कहानी भी पीडीएफ के रूप में इस आलेख के आखिर में दे रहा हूं। रमाशंकर यादव विद्रोही को जेएनयू में गोपालन जी की लाईब्रेरी कैंटीन में बैठे हुए अक्सर देखा जा सकता है। बहुत से नए आने वाले लोग उन्हे पागल के तौर पर ही पहचानते हैं, तो कुछ वामपंथी मित्रों के लिए वे एक ऐसे शख्स हैं जो दुनिया बदलने की कोशिश में दुनिया से ही बेगाने हो गए। विद्रोही से पिछले महीने तक मेरा कोई परिचय नहीं था, उनके बारे में जानने की उत्सुकता तो बहुत हुई, पर कभी उनसे पूछने का साहस नहीं जुटा पाया। अभी कल रात को ही, बीबीसी की वेबसाइट पर उनकी तस्वीर देख और नाम पढ़कर चौंक सा गया। धक्का सा लगा कि यही वो विद्रोही जी हैं, जिनके बारे में काफी कुछ सुना व पढ़ा है। खबर यह है कि पिछले हफ्ते विश्वविद्यालय ...
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