बहुत बार ऐसा होता है, कि जब हम बहुत बड़े हो जाते हैं तो बच्चों से हमें चिढ़ होने लगती है। हम बच्चों से इतना चिढऩे लगते हैं कि डांट, फटकार और लताड़ शुरु हो जाती है। लेकिन न जाने क्यों इस सब में हम यह भूल जाते हैं कि किसी न किसी युग के बच्चे हम भी हैं।
हां बच्चे जब चीखते पुकारते हैं तो सबसे ज्यादा चिढ़ मुझे ही होती है, लेकिन सच बताऊं, जब बच्चे दुलार करते हैं न तो, जीवन का सबसे खूबसूरत पल वो लगता है। मासूम सी खिलखिलाहट चेहरे पर लिए , आकर बस आपसे लिपट जाते हैं, कभी आपकी नाक को रगड़ते हैं, तो कभी बस गले में झूलना चाहते हैं।
जब लिखने बैठा तो सोचा था, कि अपनी बात को लीक से भटकने नहीं दूंगा, लेकिन क्या करूं भई पत्रकार हूं, चारों ओर दिमाग के घोडे दौड़ते रहते हैं। चलिए उन बच्चों का तो ठीक है, जो महलों में पले हैं, उन्हे तो सिर्फ इसलिए डांट पड़ती है कि वे अपने समाज के सलीके सीख लें। लेकिन उन बच्चों का क्या जिन्होने कभी फुटपाथ और झोंपड़े की आगे की दुनिया का सोचा ही नहीं। जिन्होने तो शायद बचपन नामक चीज़ को ठीक से पहचाना ही नहीं होता। बस वे तो सोचने की उम्र तक आते आते, पेट की खातिर बसों, रेलों, फैक्टरियों और सिग्नलों पर धक्के खाते हैं। अब बच्चे हैं तो डांट तो उन्हे भी पड़ेगी न...लेकिन मालूम है क्यों, क्योंकि उन्हे संघर्ष करवाने की आदत डलवाना जरूरी है। उन्हे डांट पड़ती है जिससे वे अधिक से अधिक काम कर पाएं, चाहें बसों में टिकट काटें, या ट्रेफिक सिग्नल पर भीख मांगे। चाहे फैक्टरी में अपना खून जलाएं, या होटल में वेटर बनें, उन्हे डांट पड़ती है, जिससे वे इस लावे सी जिंदगी को जीना सीख जाएं।
हमारी सोसाइटी के कल्चर्ड बच्चे, अगर कभी अन-कल्चर्ड होने की कोशिश करें, तो हमारे लिए शर्म के पात्र बन जाते हैं। कोई मिसेज शर्मा किसी मिसेज वर्मा से अपने सोनू की तारीफ के जब पुल बांधती हैं, तो बस मिसेज वर्मा के बच्चों की तो आफत ही आ जाती है। वर्मा मैडम उन्हे हर बात के लिए दूसरे के बच्चों जैसा बनने को जो कहती हैं। लेकिन इस कल्चर-सेंस सिखाने के चक्कर में हम अक्सर बच्चे के स्वाभाविक गुणों को मार देते हैं। हम उसे वैसा बनाना चाहते हैं, जैसे हम खुद हैं, या जैसा हमारे मां-बाप ने हमे बनाया है।
दो समाजों के दो बच्चे, दोनो की तकलीफों में यूं तो ज़मीन आसमान का अंतर है, लेकिन बहुत हद तक दोनो काम एक सा ही करती हैं, बच्चे के बचपन और उसके गुणों को कुचलने का।
वैसे तो यह टाइटल युवा कथाकार अनुज जी के कहानी संग्रह और उसमें पहली कहानी का है, लेकिन इस समय जो किस्सा मैं यहां कहने जा रहा हूं, उसके लिए मुझे यह बिल्कुल सटीक लगा। जिन लोगों ने यह कहानी पढ़ी है वो समझ ही गए होंगे कि मैं राजधानी के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के 'विद्रोही जीÓ की बात करने जा रहा हूं। अनुज जी की कहानी भी पीडीएफ के रूप में इस आलेख के आखिर में दे रहा हूं। रमाशंकर यादव विद्रोही को जेएनयू में गोपालन जी की लाईब्रेरी कैंटीन में बैठे हुए अक्सर देखा जा सकता है। बहुत से नए आने वाले लोग उन्हे पागल के तौर पर ही पहचानते हैं, तो कुछ वामपंथी मित्रों के लिए वे एक ऐसे शख्स हैं जो दुनिया बदलने की कोशिश में दुनिया से ही बेगाने हो गए। विद्रोही से पिछले महीने तक मेरा कोई परिचय नहीं था, उनके बारे में जानने की उत्सुकता तो बहुत हुई, पर कभी उनसे पूछने का साहस नहीं जुटा पाया। अभी कल रात को ही, बीबीसी की वेबसाइट पर उनकी तस्वीर देख और नाम पढ़कर चौंक सा गया। धक्का सा लगा कि यही वो विद्रोही जी हैं, जिनके बारे में काफी कुछ सुना व पढ़ा है। खबर यह है कि पिछले हफ्ते विश्वविद्यालय ...
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