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कहानियों का गड़बड़-झाला

lovers_vikshobh_kahaniyan copy मेरे साथ तो अक्सर ऐसा होता है, आपका पता नहीं। जब भी लेख से अलग हट कोई कहानी वगैरह लिखने बैठता हूं, तो कुछ पंक्तियां लिखने के बाद ही बोरियत सी महसूस होने लगती है, नतीजा कहानी भी बोर हो जाती है।

मैं ऐसी कहानियों में विश्वास रखता हूं, जो कल्पना के संसार मे न रची जाती हों, बल्कि उनका सृजन तो आम जीवन के बीच में होता हो। मतलब कहानियां यथार्थ से जुड़ी हुयी हों। जैसे गोर्की, प्रेमचंद, और अभय मौर्य की परंपरा रही है। लेकिन ऐसी कहानियां लिखने के लिये तो आपको यथार्थ को समझना पड़ता है, उसमें सिर्फ जीना ही नहीं होता, बल्कि उसका पूरी गहनता से अवलोकन करना होता है। तब कहीं जाकर आप अपनी कहानी के लायक कुछ सामग्री निकाल पाते हैं। यथार्थ को लिखने के लिये यथार्थ से घबराना नहीं होता बल्कि उसके सच को कलमब़द्ध करना होता है।

गोर्की ने `मेरा बचपन´, `मेरे विश्वविद्यालय´, और `जीवन की राहों पर´, नाम से एक आत्मकथात्मक त्रयी लिखी है, जिसमें `अल्यूशा´ नाम के नन्हे से बालक के गोर्की बनने के बीच के संघर्षों की दास्तां है। दूसरी ओर मौर्य का जो उपन्यास मुझे सबसे ज्यादा पसंद आया, वो था ``मुक्तिपथ´´, हालांकि यह आत्मकथात्मक तो नहीं है, लेकिन इसे पढ़ते हुये कोई भी बता सकता है, कि यह यथार्थ से, बहुत हद तक प्रेरित है। उपन्यास में विजय नाम का  एक देहाती युवक उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिये दिल्ली आता है, और उच्च मध्यमवर्ग के हाथों सामाजिक प्रताड़ना का शिकार होता है। वो महसूस करता है, कि गांव में यही सब तो उच्च जातियों के सामंत अब तक निम्न जातियों के लोगों पर करते आये है। उपन्यास दो भारतों का भी चित्रण करता है, एक भारत वो है, जिसकी सभ्यता, संस्कृति और विकास के ढोल विदेशों में पीटे जा रहे हैं, दूसरा भारत वो है, जो भूख, बेरोजगारी और सामाजिक अन्याय के कारण बिलख रहा है। उपन्यास निश्चल प्रेम को भी दिखाता है, साथ ही यह भी कि इस तरह का माहौल विजय को विचलित नहीं करता, बल्कि इस सब को बदलने के लिये वो वामपंथी छात्र राजनीति से जुड़ जाता है। यूं तो उपन्यास 70-80 के दशक के दिल्ली की कहानी कहता है, लेकिन फिर भी यथार्थ से जुड़ा हुआ महसूस होता है, क्योंकि उपन्यास में जिन समस्याओं का जिक्र किया गया है, वो अब भी ज्यों की त्यों कायम हैं, बल्कि अब तो उन्हाने और भी ज्यादा विकराल रूप धारण कर लिया है।

एक अच्छी कहानी लिखने के लिये कल्पना का साथ होना भी बहुत जरूरी है, कोरी कल्पना नहीं, बल्कि यथार्थवादी कल्पना। अब आप सोच रहे होंगे कि कल्पना में भी यथार्थ, जी हां, क्योंकि अगर कल्पना में यथार्थ का चिंतन नहीं होगा तो, आपकी कहानी लीक से भटक भी सकती है। जब तक आम जीवन से जुड़ी रही तब तक तो सब ठीक, ज्यों ही वो आपकी कल्पना के संसार में पहुंची, तो जमीन पर दौड़ रहे इंसान के आपने पंख निकाल दिये उसको अलौकिक दिव्य शक्तियों से आपने लैस कर दिया!!! इसलिये यथार्थवादी चिंतन की आवश्यकता है।

बकबक बहुत हो गयी, अच्छी कहानियों में बकबक नहीं होती, एक गहरी समझ होती है, और कहानीकार तो उस किस्सागो की तरह होता है, जिसका काम सिर्फ, किस्से को अपने श्रोता को, हमारे केस में पाठक को सुनाना भर होता है। कहानियां तो जीवन रचता है, हमारा काम तो बस उन्हे शब्दों का सुंदर सा जामा उढ़ाकर पाठक तक पहुंचाना भर होता है।

Comments

  1. बहुत काम की है यह बकबक
    जैसे किसी कहानी का पूर्वकथन।

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  2. जी, और मुश्किल यह की बकबक से ऊपर उठकर, असली कहानी लिखना वाकई एक अग्निपरीक्षा लगता है...

    मेरे पिछ्ले कई लेखों में दिये जा रहे आपके निरंतर प्रोत्साहन के लिये शुक्रिया...

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