
जब मैं छोटा था, तो बहुत सा समय चित्रकारी, कहानियां पढ़ने और बागबगीचे में अक्सर पौधे लगाते हुये बीतता। पौधों के गमलों के लिये मिट्टी खोद कर लाना, और किस्म किस्म के पौधों को गमलों मे सजाना, मुझे बहुत भाता था। घर की लाईब्रेरी से चेखव, गोर्की या लु-शुन को पढ़ते हुए उपन्यासों के यथार्थ में डूब जाना, या अक्सर किसी चाचा चौधरी या साबू के किस्से को पढ़ते हुये, उसे रेखाचित्रों के माघ्यम से उकेरने का अनगढ़ प्रयास, इस सारे उल्लास से सराबोर था मेरा बचपन। जहां भी जाता कैमरा सदा एक आंख पर चिपका रहता, शायद बचपन में मेरे आसपास की हर सुनहरी याद को हमेशा के लिये खुद में कैद कर लेना चाहता हो। लेखन का जो मामूली प्रयास आप इस ब्लॉग पर देख रहे हैं, उसमे भी मेरे बचपन और आसपास के परिवेश का बहुत बड़ा योगदान है। हां पर मैथ की हर परीक्षा से पार पाना हिमालय पर्वत की चोटियां चढने के समान लगता, न जाने क्यों हमारा शिक्षा तंत्र बच्चे के गुणों को उभारने का काम न करके, उसे आदेशों की पूर्ति करने वाला रंगरूट ज्यादा बनाना चाहता है।
वैसे बड़े होने के अपने कई फायदे हैं, आपका ज्ञान बढ़ता है, लोग आपकी बात को ज्यादा घ्यान के साथ सुनते हैं, लेकिन कई मूलभूत नुकसान यह हैं कि आपका चैन गायब हो जाता है, और ``काम्पिटेटिव´´ बने रहने के लिये आप गजब की दौड़भाग करते हो।
आज जब अपने चारों ओर के माहौल में इतनी घुटन, इतनी रफ्तार पाता हूं, तो उसी बचपन में लौटने को दिल करता है, जहां ऊंचे ऊंचे पौपुलरों के साये में भविष्य के कवि का विकास हो रहा होता है, लेकिन बहुत चाहते हुये भी जब ऐसा करने में असमर्थ होता हूं, तो भविष्य में ``वसीली सुखोमिलिंस्की´´ की तरह खुशियों का स्कूल खोलने का सपना, मन में बसा लेता हूं, एक ऐसा वातावरण जहां भविष्य के निर्माताओं का निर्माण एक तनावरहित और खुशनुमा माहौल में होता हो।
मेरी बिटिया के जन्म के समय एक दोस्त न कहा था '' बच्चों को पालन सबसे मुश्किल काम होता है और इसे सबसे लापरवाही से किया जाता है।
ReplyDeleteआपको पढकर एक बार फिर वही याद आ गया
औसतन ऐसा ही होता है, लेकिन अगर सोच यह हो कि "बच्चे ही भविष्य के समाज निर्माता हैं, भविष्य के गोर्की, पिकासो, या भगत सिंह हैं, तो फिर शायद कुछ सजगता आ सके बच्चों के लालन पालन में...
ReplyDelete