
फिल्म राजस्थान के एक कस्बे में हॉस्टल की तलाश कर रहे कानून के एक विद्यार्थी दिलीप को दिखाती है, जिसकी उसके कालेज के कुछ गुंडे रैगिंग लेने के बाद एक कमरे में बंद कर देते हैं, जहा ``अनुजा´´ नामक उनकी एक शिक्षिका भी उनकी अभद्रता का शिकार बनने के बाद पहले से ही बंद होती है। बाद में अनुजा भी अपना हास्टल छोड़ दिलीप के साथ ही रहने लगती है, जो अपने दोस्त रणंजय की कोठी पर रह रहा होता है। फिल्म की कहानी उन रजवाड़ों को दिखाती है, जिन्होने लोकतंत्र को स्वीकार तो कर लिया है, लेकिन उनके सामंती विचार उन्हे वापस अपना राज कायम करने के लिये उकसाते हैं, और इसके लिये वे एक अंडरग्राउंड मूवमेंट लांच कर देते हैं। उस मूवमेंट का मकसद इस राज को कायम करने के लिये एक सशस्त्र संघर्ष को अंजाम देने का था। जनसमर्थन जुटाने के लिये वे लोग छात्र-राजनीति से खुद को जोड़ लेते हैं। पूर्व ``हिस हाईनेस´´ इसे मदद देता है, और अपने बेटे रणंजय को कालेज के जनरल सेक्रेटरी की पोस्ट पर खड़ा कर देता है, उसके विरोध में उसका नाजायज बेटा, अपनी बहन किरण को चुनाव में खड़ा करवा देता है, और उसके सगे बेटे को कत्ल करवा देता है। बेटे की मौत के गम में राजा भी मर जाता है। अब मूवमेंट का सेनापति ``दुक्कन बना´´(केके. मेनन) रणंजय के दोस्त दिलीप को चुनाव मे उसकी जगह उतार देता है। दिलीप चुनाव जीत भी जाता है। किरण और उसका भाई मिलकर साजिश करते हैं, और किरण दिलीप को अपने प्रेमजाल में फांस कर, उसे जनरल सेक्रेटरी की पोस्ट से इस्तीफा दिलवा देती है, और खुद जनरल सेक्रेटरी बन बैठती है, और दिलीप को ठुकरा कर ``दुक्कन बना´´ को फांस लेती है। दिलीप बेचारा इस धोखे को समझ नही पाता, और उन लोगों से भी दूर हो जाता है जो उसे पसंद करते होते हैं, उसके व्यवहार से दुखी हो अनुजा उसे छोड़ जाती है। अंत में दिलीप किरण को दोबारा हासिल करने के चक्कर में दुक्कन को मार डालता है, जब वो किरण के पास जाता है, तो वो बंदूक के जोर पर उससे सच जानने में कामयाब हो जाता है, लेकिन उसके भाई के हाथों मारा जाता है। फिल्म खत्म होती है, राजा के सौतेले बेटे के, मूवमेंट के प्रधान सेनापति बनने के साथ।
फिल्म दिखाती है कि किस तरह से सरकार की नाक के नीचे इस तरह के मूवमेंट चलते रहते हैं, और किसी का भनक तक नहीं लगती। फिल्म यह भी दिखाती है, कि भाषा, धर्म और क्षेत्र के नाम पर चलने वाले इस तरह के आंदोलन, भारत को हिटलरी जर्मनी और तालिबानी अफगानिस्तान की श्रेणी में रख सकते हैं। कदम कदम पर फिल्म में इसकी पुष्टि भी होती है, मसलन एक जगह दुक्कन का यह कहना कि वो एक आदमी को उसी तरीके से फांसी चढ़ा देगा जैसे ``तालिबान ने अफगान राष्ट्रपति नजीबुल्लाह को चढ़ाया था´´, दूसरे उदाहरण में उस घटना को लिया जा सकता है, जब ``दुक्कन´´ कहीं जा रहा होता है, और उसका भाई ``पृथ्वी´´( पीयूष मिश्रा) हिटलर के अंदाज में उसे ``नाजी सैल्यूट´´ देता है।
फिल्म में पीयूष मिश्रा का रोल काफी सकारात्मक इस मायने में कहा जा सकता है, कि जॉन लेनन टाईप यह गवैया, अपने गीतों के जरिये अपने छोटे भाई पर अपना विरोध दर्ज करवाता रहता है, हालांकी फिल्म के गीतों के बोल भी पीयूष मिश्रा ने ही लिखे हैं। हर गीत कहीं न कहीं प्रतिरोध का गीत कहा जा सकता है, मसलन यह गीत :
``जैसे दूर देश के टॉवर में घुस जाये रे ऐरोप्लेन´´
इस गीत में राणा दुक्कन की तुलना तालिबान और इराक में जबर्दस्ती जा बैठे अंकल सैम, अमेरिका से करता है। लेकिन कई चीज़ें फिल्म में ऐसी है जिनका जवाब मिलना जरूरी है। जवाब इस बात का कि अगर ऐसा कोई अलगाववादी आंदोलन पूरी सैन्यबल के साथ उठ खड़ा होता है, तो उसकी रोकथाम के क्या मुमकिन उपाय हो सकतें हैं, क्या हिंदुस्तान में उठ रही उस तरह की तालिबानी शक्तियों को बढ़ने से पहले ही नहीं रोका जा सकता। दूसरे हमारे समाज में ऐसी कितनी ही महिलायें हैं जो अनुजा की तरह शारीरिक शोषण का शिकार होने के बाद भी, किसी ठोस व्यवस्था के अभाव में उसका मुकाबला नहीं कर पातीं, और अंदर ही घुट कर रह जाती हैं। यह दोनो ही सवाल इस फिल्म मे बड़ी गंभीरता से उठाये गये हैं।
``जैसे दूर देश के टॉवर में घुस जाये रे ऐरोप्लेन´´
इस गीत में राणा दुक्कन की तुलना तालिबान और इराक में जबर्दस्ती जा बैठे अंकल सैम, अमेरिका से करता है। लेकिन कई चीज़ें फिल्म में ऐसी है जिनका जवाब मिलना जरूरी है। जवाब इस बात का कि अगर ऐसा कोई अलगाववादी आंदोलन पूरी सैन्यबल के साथ उठ खड़ा होता है, तो उसकी रोकथाम के क्या मुमकिन उपाय हो सकतें हैं, क्या हिंदुस्तान में उठ रही उस तरह की तालिबानी शक्तियों को बढ़ने से पहले ही नहीं रोका जा सकता। दूसरे हमारे समाज में ऐसी कितनी ही महिलायें हैं जो अनुजा की तरह शारीरिक शोषण का शिकार होने के बाद भी, किसी ठोस व्यवस्था के अभाव में उसका मुकाबला नहीं कर पातीं, और अंदर ही घुट कर रह जाती हैं। यह दोनो ही सवाल इस फिल्म मे बड़ी गंभीरता से उठाये गये हैं।
गुलाल एक ऐसी फिल्म है, जिसका वर्णन किसी समीक्षा में कर पाना कठिन है, इसलिये मेरी सलाह तो भई यही है कि पहले फिल्म देख लें, फिर यह समीक्षा पढ़ें, तभी कहानी का फेर कुछ समझ में आ पायेगा।
अच्छा लिखा है आपने , इस शानदार लेखन के लिए बधाई , साथ ही आपका चिटठा भी बहुत खूबसूरत है ,
ReplyDeleteइसी तरह लिखते रहे , हमें भी उर्जा मिलेगी ।
धन्यवाद ,
मयूर
अपनी अपनी डगर
प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद बन्धु...
ReplyDeletemere pasandeeda fimo me se ek hai dost ye....ajeeb baat hai ki iske baare me baat ki aur iske gaano ka ullekh nai kiya...bahut kam fimo me is tarah ke gaane sunne ko mile hai aaj tak...zabardast
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