मेरे साथ तो अक्सर ऐसा होता है, आपका पता नहीं। जब भी लेख से अलग हट कोई कहानी वगैरह लिखने बैठता हूं, तो कुछ पंक्तियां लिखने के बाद ही बोरियत सी महसूस होने लगती है, नतीजा कहानी भी बोर हो जाती है। मैं ऐसी कहानियों में विश्वास रखता हूं, जो कल्पना के संसार मे न रची जाती हों, बल्कि उनका सृजन तो आम जीवन के बीच में होता हो। मतलब कहानियां यथार्थ से जुड़ी हुयी हों। जैसे गोर्की, प्रेमचंद, और अभय मौर्य की परंपरा रही है। लेकिन ऐसी कहानियां लिखने के लिये तो आपको यथार्थ को समझना पड़ता है, उसमें सिर्फ जीना ही नहीं होता, बल्कि उसका पूरी गहनता से अवलोकन करना होता है। तब कहीं जाकर आप अपनी कहानी के लायक कुछ सामग्री निकाल पाते हैं। यथार्थ को लिखने के लिये यथार्थ से घबराना नहीं होता बल्कि उसके सच को कलमब़द्ध करना होता है। गोर्की ने `मेरा बचपन´, `मेरे विश्वविद्यालय´, और `जीवन की राहों पर´, नाम से एक आत्मकथात्मक त्रयी लिखी है, जिसमें `अल्यूशा´ नाम के नन्हे से बालक के गोर्की बनने के बीच के संघर्षों की दास्तां है। दूसरी ओर मौर्य का जो उपन्यास मुझे सबसे ज्यादा पसंद आया, वो था ``मुक्तिपथ´´, हालांकि यह आत्मकथात्...