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दि रिर्टन(वोज़व्राशेनिये)

फिल्म बनाना एक कला है, और यह कला रूस को अपने सोवियत युग से बतौर विरासत प्राप्त हुयी है। आज भी रूसी निर्देशक ऐसी फिल्में बना रहे हैं, जो भावनात्मक रूप से जनता के बीच अपनी पैठ बनाने में सक्षम हैं। अभी पिछले दिनो ऐसी ही एक फिल्म दि रिर्टन देखने का मौका मिला, फिल्म ऐसे दो बच्चों की कहानी है, जिन्हे उनका पिता 12 सालों के बाद मिलता है, और कुछ दिनो तक उनके जीवन पर छा जाता है, लेकिन कहानी का सबसे भावनात्मक हिस्सा तो उसका अंत ही है।
फिल्म की शुरुआत होती है, समुंदर में, एक ऊंची मचान से छलांग लगा रहे कुछ लड़कों से। जिसमें से वान्या ऊंचाइयों से घबराता होता है, जबकि उसका भाई आन्द्रेई निडर होता है। इसी बात को लेकर अगले दिन स्कूल में सब वान्या का मजाक उड़ाते हैं, और जब वान्या और आन्द्रेई लड़ते-झगड़ते अपने घर पंहुचते हैं, तो उन्हे 12 साल बाद घर लौट कर आये अपने पिता के आगमन का पता चलता है। आन्द्रेई तो शुरू से ही अपने पिता से हिल जाता है, जबकि वान्या अपने पिता से हमेशा आशंकित रहता है। अब पिता अपने दोनो बच्चों को एक दूर के टापू पर कुछ दिनो की सैर पर लेकर जाता है, रास्ते में वान्या और उसके पिता के सबंध और भी कटु हो जाते हैं, वान्या को हर पल न जाने ऐसा क्यों महसूस होता रहता है कि उसका पिता उनके अच्छे खासे जीवन को तबाह करने के लिये ही वापस आया है, पिता के द्वारा बरते जा रहे कठोर अनुशासन से स्थिति और भी ज्यादा कष्टदायक हो जाती है। जिस दिन इन लोगों को टापू से लौटना होता है, उस दिन वान्या और आंद्रे पिता की इजाजत लेकर समुंदर मे मछली मारने चले जाते हैं, पिता उनका तीन बजे तक लौट कर आने के लिये बोलता है, लेकिन उन्हे लौटते-लौटते सात बज जाते हैं। उनका पिता समुद्र तट पर बैठा उनकी राह देख रहा होता है, और उन्हे देखकर उसके गुस्से की कोई सीमा नही रहती, वो आंद्रे को पीटना शुरू कर देता है, लेकिन छोटा वान्या अपने पिता का छुरा निकाल पिता को भयभीत करने की कोशिश करता है, और अंत में भागकर मचान पर जा चढ़ता है, और ऊपर से दरवाजा बंद कर, मचान से कूद कर जान देने ही वाला होता है, वान्या को बचाने के चक्कर में उसका पिता सौ फीट ऊंची मचान से गिर कर मर जाता है। दोनो बच्चे किसी प्रकार से पिता के मृत शरीर को नाव पर लादने में सफल हो जाते हैं, और जब वे लोग नाव(मोटरबोट) से समुद्र पार कर रहे होते हैं, तो उनकी नाव में किसी समुद्री चट्टान से टकराकर छेद हो जाता है, लेकिन किसी तरह से वे लोग किनारे तक पंहुचने में सक्षम हो जाते हैं। दोनों बच्चे सारा सामान नाव से निकालकर जैसे ही किनार खड़ी गाड़ी में लाद कर वापिस लौटते हैं, तो क्या देखते हैं कि पिता का शरीर जो नाव में ही रह गया था, नाव के साथ किनारे से दूर जा चुका होता है, और डूब रहा होता है, इसी क्षण वान्या के दिल में पिता के लिये सोया हुआ प्यार जाग उठता है, और फिल्म भी यहीं पर, आंद्रे के द्वारा ली गयी तस्वीरों की झलकियों के साथ समाप्त होती है।
फिल्म को बनाते वक्त एक एक चीज़ को बड़ी बारिकी से उभारा गया है, मसलन जिन जिन जगहों पर इसे फिल्माया गया है, वो किसी बड़ शहर या किसी आलीशान सेट का हिस्सा नहीं, बल्कि वो तो एक छोटा सा देहाती कस्बा ज्यादा प्रतीत होता है, साथ ही फिल्म एक बिल्कुल साधारण से परिवार की कहानी कहती है, जो आपका, मेरा या हममे से किसी का भी हो सकता है। यह छोटी छोटी सी चीज़ें ही फिल्म को आमजन से जोड़ पाती हैं। जब फिल्म समाप्त होने को होती है, तो जिस तरीके से, निर्देशक आन्द्रेई ज़्यागिंत्सेव, शवेत-श्याम चित्रों की झलकियां दिखाते हैं, वो दर्शकों के मन में संवेदना की एक छाप छोड़ देता है, अंतिम चित्र दोनो बच्चों की मां के शोकाकुल चेहरे को दिखाता है, यही सब अगर अभिनय के माध्यम से दिखाया गया होता, तो शायद उसका उतना प्रभाव न होता, जितना इस तरीके का हुआ है।
आज के इस दौर में जब हम अपने आसपास के सिनेमा पर नज़र डालते हैं, तो पाते हैं, फिल्मे न जाने कौन कौन सी दुनियाओं की सैर तो हमें करवा रही हैं, लैला मजनू से लेकर सिंह इज़ किंग के लकी- सोनिया तक की जोड़ियां भी हमने देख लीं, लेकिन अब देखना यह है कि आगे हमारा सिनेमा हमे हमारे ही जीवन की कहानियों से, उसकी हकीकतों से कितना जोड़ पाता है।

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